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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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हटना न हो, उसके लिए तो विषयातीत आत्मा की यह बात किसी प्रकार से पकड़ में नहीं आयेगी क्योंकि उसे तो आत्मा को समझने की आवश्यकता ही नहीं लगी है, गरज नहीं है, धगश नहीं है। जिसे अन्तर में ऐसा लगता है कि अरे! मैं मेरे चैतन्य की प्रभुता को भूलकर इस पामररूप से भटक रहा हूँ, यह मुझे शोभा नहीं देता। आत्मा का स्वरूप समझकर कल्याण करने का अभी यह अवसर है - ऐसा गरजवान होकर समझना चाहे तो अवश्य यह बात समझ में आती है। __ आत्मा के अतिरिक्त उसकी परिणति में कहीं चैन नहीं पड़े; इस प्रकार आत्मा के सन्मुख होने पर जो सम्यग्दर्शन आदि निर्मलभाव प्रगट हुए, वे मोक्षमार्ग हैं। उन्हें भावना' इत्यादि अनेक नामों से कहा जाता है। जैसे, जिसे संसार की बात का प्रेम होता है, उसमें उसका उपयोग एकदम जुड़ जाता है, वहाँ वह प्रमादी नहीं होता; इसी प्रकार मोक्ष के लिए आत्मा के चैतन्यस्वभाव का जिसे रस हो, उसे उसका उत्साह आता है और उसमें सहज ही ज्ञान का व्यापार चलता है। सूक्ष्म तत्त्व में भी वह उलझन में नहीं आता परन्तु 'यह तो मेरा स्वभाव ही है' - ऐसा उसमें उसका उपयोग लगता है। उस उपयोग में राग का अवलम्बन नहीं है; स्वभाव का ही अवलम्बन है, इसका नाम धर्म है। .
प्रश्न – यदि राग का अवलम्बन नहीं है तो फिर जिनप्रतिमा का अवलम्बन किसलिए?
उत्तर – जिसे आत्मा के वीतरागभाव का प्रेम होता है परन्तु अभी राग हो, उसे शुभराग के समय वीतरागता के निमित्तों के प्रति लक्ष्य जाता है। जिनप्रतिमा, वीतरागभाव का प्रतिबिम्ब है - ऐसी.