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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
की भावना से मोक्ष प्रगट होता है। भाई ! ऐसे अपने स्वभाव की भावना छोड़कर तू राग की और पुण्य की भावना में कहाँ फँस गया ! तेरा आत्मा कहीं राग से जुड़ा हुआ नहीं है । आत्मा तो ज्ञान से भरा हुआ है। जिसकी एक समय की अवस्था में अनन्त पदार्थों को जानने की सामर्थ्य है, उसकी अपार सामर्थ्य का क्या कहना ! चारों तरफ अमाप... अमाप .... जिसका कहीं माप नहीं - ऐसा अमाप बेहद आकाश (अनन्त को अनन्त बार गुणित करे ) तो भी जिसके प्रदेशों का माप नहीं आवे - ऐसा अनन्त आकाशक्षेत्र है, उसे भी एक समय में जो प्रत्यक्ष कर सकता है-उससे भी अनन्तगुना जानने की जिसकी सामर्थ्य है - अहो ! उस ज्ञान की सामर्थ्य कितनी ! उसकी महिमा कितनी !! ऐसे ज्ञान में राग का कण कैसे समायेगा ? त्रिकाल ऐसे ज्ञानसामर्थ्य से भरपूर अनादि - अनन्त हूँ... हूँ... हूँ - ऐसा स्वसन्मुख होकर ज्ञानपर्याय जानती है। अनन्त गुण और अनन्त पर्यायोंरूप सम्पूर्ण आत्मा को एक ज्ञानपर्याय जान
ती है और आत्मा के अतिरिक्त जगत् के दूसरे अनन्त पदार्थों की अस्ति को भी ज्ञान जान लेता है। जिसके एक अंश में इतनी सामर्थ्य ! ऐसे अनन्त अंशों का समुद्र एक गुण और ऐसे अनन्त गुणों से भरपूर द्रव्य - ऐसे स्वद्रव्य की भावना करने पर अन्दर से जो प्रवाह आया, वह रागरहित है, आनन्द से भरपूर है - ऐसी भावना, वह अपूर्व महान दशा है। राग में ताकत नहीं है कि ऐसे • स्वद्रव्य को भा सके।
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स्वद्रव्य की भावना रागरहित है, उसे राग का विकल्प का आधार नहीं है । राग की मन्दता द्वारा अन्तर स्वभाव में प्रवेश हो जाए - ऐसा नहीं है । मन्दराग कहीं आत्मा को जानने का साधन