SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 183 उत्तर - जो उपशमादि निर्मलभाव हैं, वे तो रागरहित ही हैं, उस काल में साधक की भूमिका में राग भले हो परन्तु वह तो उदयभावरूप है, वह कहीं उपशमादिभावरूप नहीं हैं, अर्थात् उपशमादि निर्मलभावों में तो जरा भी राग है ही नहीं, इसलिए वे भाव समस्त रागादिरहित ही है। आंशिक शुद्धता और आंशिक राग - दोनों एक साथ वर्तते होने पर भी, दोनों का स्वरूप ही भिन्न है - ऐसा पहचाने तो भेदज्ञान होता है। जो कोई राग-अंश है, वह तो बन्ध का ही कारण है; वह मोक्ष का कारण जरा भी नहीं है और मोक्ष का कारण उपशमादि निर्मलभाव हैं, वे तो रागरहित ही हैं । जो शुभराग है, वह कहीं मोक्षकारणरूप ‘भावना' नहीं है। शुद्ध चैतन्यस्वरूप में एकाग्र होने से जो निर्विकल्पदशा प्रगट हुई, वह मोक्षकारणरूप भावना' है, उसमें राग नहीं है। यह भावना किसे भाती है? अपने शुद्ध आत्मा को भाती है। शुद्धद्रव्य त्रिकालभावरूप है और उसके सन्मुख हुई परिणति, वह भावना है - ये दोनों शुद्ध हैं। राग, ध्रुवस्वभाव में तो है ही नहीं; उस तरफ झुकी हुई पर्याय में भी राग नहीं है। शुद्ध आत्मा की ऐसी भावना तो अमृत है; राग तो उससे विरुद्ध है, बन्ध का कारण है। . जिसमें शुद्ध चैतन्यभाव का भवन हो, उसे ही सच्ची भावना कहते हैं । अमृत के सागर – ऐसे अन्तर स्वरूप में एकाग्र होने पर जो आनन्दमय अमृत का झरना झरता है, उसका नाम भावना है। वह कैसी है? अपने शुद्धपारिणामिकस्वभाव का अवलम्बन करनेवाली है, रागरहित है। चौथे गुणस्थान से ऐसी भावनापरिणति शुरु होती है। उपशमादि तीन भाव, चौथे गुणस्थान में भी होते हैं।
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy