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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
लक्ष्य में आयेगा? चैतन्यमूर्ति आत्मा को जड़ देहादि के साथ तो कभी एकता हुई नहीं; देह में अनन्त रजकण हैं और उनमें से प्रत्येक रजकण द्रव्यरूप से ध्रुव रहकर अपनी पर्यायरूप से स्वयं पलटता है; आत्मा उसका कर्ता नहीं है। देह से भिन्न भगवान आत्मा भी अनन्त गुण का पिण्ड सत् वस्तु है; वह द्रव्यरूप से ध्रुव रहकर प्रतिक्षण अपनी पर्यायरूप स्वयं पलटा करता है। उसका कारण कोई दूसरा नहीं है। रागपरिणाम हो या वीतरागपरिणाम हो, वह परिणाम अपनी पर्याय से ही है; उसका कारण दूसरा कोई नहीं है। सत्द्रव्य और सत्पर्याय दोनों होकर पूरी सत्वस्तु है - ऐसी सत्वस्तु का विचार करके उसका सत्य ज्ञान करना चाहिए।
अन्तर में अपने ऐसे सत् को समझे तो जीव निडर हो जाए, उसे मरण की शंका नहीं रहे। अरे...! मरे कौन? मैं तो त्रिकाल आनन्दकन्द हूँ; द्रव्यदृष्टि में मुझे जन्म-मरण है ही नहीं। देहादि संयोग तो अध्रुव ही है, उनके नाश से कहीं मेरा नाश नहीं होता है, वे तो पहले से ही मुझसे भिन्न हैं, मुझरूप कभी हुए ही नहीं। 'मैं तो अखण्ड परमात्मतत्त्व हूँ' - ऐसी भावनारूप जो औपशमिक आदि भाव, वे मोक्ष का कारण हैं । मोक्ष कहो, या अमर पद कहो - वह ऐसे भाव द्वारा प्राप्त होता है। ___वे भाव कैसे हैं ? समस्त रागादि से रहित हैं और शुद्ध उपादान -कारणरूप हैं, इसलिए वे मोक्ष के कारण हैं। वे समस्त रागरहित होने से उन्हें मोक्ष का कारण कहा है, अर्थात् राग का कोई अंश मोक्ष का कारण नहीं है।
प्रश्न - साधक को उपशमादिभाव के समय राग तो होता है, फिर भी उसे 'समस्त रागादिरहित' कैसे कहा है ?