SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 181 अनुभव में आता है। भावश्रुत कहो या भावना कहो, वह राग का अवलम्बन करनेवाले नहीं हैं, अपितु शुद्धपारिणामिक स्वभाव को अवलम्बन करनेवाले हैं और वही मोक्ष का कारण है। भाई! तूने कभी तेरे सत्यस्वरूप का विचार भी नहीं किया है, कि अरे! मैं कौन हूँ? मुझमें क्या हो रहा है? मेरी दशा में दुःख और अशान्ति क्यों है? वह मिटकर शान्ति प्राप्त करने के लिए क्या करना चाहिए? मुझमें ऐसा कौन-सा वस्तुस्वरूप है कि जिसके सन्मुख देखने से दु:ख मिटे और सुख प्रगटे? दुःख में से तो कहीं सुख नहीं आता; तो दु:खरहित ऐसा कौन-सा तत्त्व है कि जिसमें से मुझे सुख मिले? इस प्रकार स्वतत्त्व का सच्चा विचार, अर्थात् स्वसन्मुख विचार करे तो सम्यग्ज्ञान होता है। अरे! ऐसे उपाय से मेंढ़क जैसे आत्मा भी, आत्मज्ञान प्राप्त करके मोक्षमार्ग में चढ़ गये और इस उपाय के बिना मन्दकषायपूर्वक बाहर में हजारों रानियाँ और राजपाट छोड़कर द्रव्यलिंगी साधु होने पर भी आत्मज्ञान नहीं प्राप्त किया। जगत् में भले ही वह महात्मा के रूप में पूजा जाता हो परन्तु अन्दर स्वयं महान आत्मा, राग-द्वेषरहित आनन्दकन्द है, उसके भान बिना उसके भवभ्रमण का अन्त नहीं आता। वीतरागदेव द्वारा कथित वास्तविक पदार्थ की व्यवस्था अनुसार आत्मा का कायमी स्वभाव क्या है और पलटता भाव क्या है – इसे जाने बिना जीव की अवस्था में सम्यक्त्व आदि का परिणमन नहीं होता, अर्थात् धर्म नहीं होता है। . . अभी तो मैं राग से और शरीर से पृथक हूँ - इतना जानने में भी जिसे कठिनाई लगती है, उसे अन्दर का त्रिकाली तत्त्व, जो कि निर्मलपर्याय से भी कथञ्चित् भिन्न है, उसका स्वरूप कहाँ से .
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy