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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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* निज परमात्मद्रव्य के सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-अनुच्चरणरूप पर्याय, वह मोक्षमार्ग;
* शुद्धात्माभिमुख परिणाम, वह मोक्ष का मार्ग; * शुद्धोपयोग, वह मोक्ष का मार्ग; * शुद्ध पारिणामिकभाव की भावना, वह मोक्षमार्ग;
* समस्त रागादिरहित शुद्ध उपादानकारणभूत औपशमिक आदि भाव, वह मोक्षमार्गः
* शुद्धभावनापरिणतिरूप क्रिया, वह मोक्ष का कारण; * शुद्ध पारिणामिकभाव का ध्यान, वह मोक्षमार्ग;
* निर्विकार स्व-संवेदन लक्षण क्षायोपशमिकज्ञान, वह मोक्षमार्ग;
* एकदेश व्यक्तिरूप, अर्थात् आँशिक शुद्धिरूप मोक्षमार्ग; * 'निज परमात्मद्रव्य ही मैं हूँ' - ऐसी भावना, वह मोक्षमार्ग है।
- मोक्षमार्ग की इतनी व्याख्याएँ तो एक ही अर्थात् इस 320 वीं गाथा की टीका में आयी है। इसके अतिरिक्त मोक्षमार्ग के दूसरे कितने ही नाम पूर्व में कहे जा चुके हैं।
हजारों, लाखों या चाहे जितने नाम कहो; उन सबका वाच्य जीव के भाव में समाहित हो जाता है। जीव के 'शुद्धभाव' में कोई भाषा नहीं है, भावनारूप अर्थात् आत्मा के स्वभाव की सन्मुखतारूप भावश्रुतज्ञान है, वह भावश्रुतपर्याय अन्तर्मुख होने पर उसमें वस्तु यथार्थ शुद्धभावरूप परिणम जाती है। उसमें अपूर्व आनन्द और अपूर्व शान्ति है। उसमें अनन्त भाव समाहित होते हैं। 'ज्ञानमात्र