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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
हुआ जा सकता, क्योंकि वह वस्तु ही नहीं है। फिर ध्यान किसका? वैसे द्रव्य-पर्यायरूप जैसी आत्मवस्तु सत् है, वैसी अपने ज्ञान में आवे तो उसमें उपयोग की एकाग्रतारूप ध्यान होता है। ध्यान का ध्येयरूप आत्मस्वभाव कैसा है और ध्यान पर्याय कैसी है? वह यहाँ पाँच भावों के कथन द्वारा बतलाया है।
अरे जीव! तू बाह्य में चतुराई करता है, वहाँ मुझे सब आता है, ऐसी होशियारी करता है परन्तु अपनी वस्तु को पहचानने में तू मस्तिष्क ही नहीं चलाता! बाहर में तो कहीं नजर करने का स्थान नहीं है। तेरे चिदानन्दस्वभाव में नजर कर तो वहाँ नजर स्थिर होगी। अन्दर में निजनिधान है, उसमें नजर करने से निहाल हो जाए - ऐसा है परन्तु नजर करना नहीं आता और सीखने की दरकार नहीं करता। नजर, अर्थात् ज्ञानचक्षु, वह पर्याय है; जिस पर नजर करनी है-लक्ष्य करना है, वह चिदानन्द परमस्वभाव स्थिर है; वही नजर को स्थिर होने का स्थान है और वही धर्मी का विश्राम है। ___ अवस्था में भूल है, परन्तु वह मिटायी जा सकती है। यदि भूल त्रिकाली हो तो वह मिट नहीं सकती और भूल हो ही नहीं तब तो मिटाने की बात ही नहीं है। भूल है, वह क्षणिक है और भूलरहित शुद्धस्वभाव के भान द्वारा वह भूल मिटाकर भगवान हुआ जा सकता है। इस प्रकार सभी पहलू जाननेवाला जीव सच्चे उपाय द्वारा भूल मिटाकर निर्दोषता प्रगट करता ही है।
जीव जब सत्समागम से लक्ष्य में लेकर ध्रुवस्वभाव में नजर करता है, तब निर्मलपर्यायरूप भावश्रुत अर्थात् ज्ञानचक्षु प्रगट होती है। आत्मा स्वयं ज्ञानरूप होकर अपना साक्षात्कार / अनुभव करता.