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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 175 है। आत्मवस्तु का ऐसा परिणमन मोक्षमार्ग है, वह औपशमिकभाव है, वह परमतत्त्व की भावना है। ज्ञानी की पाठशाला में आकर ऐसे वस्तुस्वरूप का व्यायाम, अर्थात् बारम्बार अन्तर के अभ्यास द्वारा स्वानुभव का प्रयोग कर! वह मोक्ष के लिए सच्ची कसरत है। अन्तर में ऐसी कसरत द्वारा ज्ञान की पुष्टि होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिए अन्तर में बारम्बार इसका प्रयत्न करने योग्य है। ___कोई भी जिज्ञासु ऐसा कहे कि 'सुखी होने के लिए मुझे मेरी भूल मिटाना है' - तो इसमें क्या आया? वह देखो : * प्रथम तो, आत्मा है; * उसकी अवस्था में भूल है; * उस भूल के कारण दुःख है, दूसरे के कारण नहीं; * भूल स्वयं ने की है परन्तु वह क्षणिक है, इसलिए मिटायी जा सकती है; * वह भूल, स्व को भूलकर परलक्ष्य से हुई है, इसलिए आत्मा के अतिरिक्त परवस्तु भी है; ___* परलक्ष्य छोड़कर आत्मा जब अपने स्वरूप को पहचानता है – स्वसन्मुख लक्ष्य करता है, तब भूल मिटकर आत्मधर्म प्रगट होता है और तब उसमें अपूर्व आनन्द और अपूर्व शान्ति आती है; और ___* अपने स्वभाव में पूर्ण एकाग्र होने पर पूर्णानन्दसहित पूर्ण शुद्धदशा प्रगट होती है। वह शुद्धदशा प्रगट होने पर पूर्व की अशुद्धदशा का व्यय होता है और द्रव्यरूप से आत्मा ध्रुव कायम रहता है; इसलिए ध्रुवत्व और पर्याय को सर्वथा एकपना नहीं है,
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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