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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 173 पूरा आत्मा है - ऐसा सिद्ध करते आये हैं। ऐसे वस्तुस्वरूप को जानकर, ध्रुवस्वभाव के सन्मुख ढलने से धर्म होता है। भाई! तू अनन्त काल से बाहर में ढला है परन्तु तेरे स्वतत्त्व की तरफ नहीं ढला; तेरे स्वरूप की दरकार और सम्हाल तूने नहीं की है। तू स्वयं अपने को भूलकर हैरान हो रहा है। देह की क्रिया को तूने अपनी माना है – देह में अपनापन माना है। अत: जब देह छूटेगी, तब तू क्या करेगा? किसके सन्मुख देखकर तू शान्ति रखेगा? देह से पृथक् तेरा तत्त्व तो तूने लक्ष्य में लिया नहीं। देह कहीं तेरी नहीं है, वह तो चली जाएगी, तेरे रखने से रहेगी नहीं; अभी भी वह तेरे कारण नहीं रही है। अरे! विकार जो कि तेरी अशुद्धपर्याय के कारण तुझमें था, वह भी तेरे स्वरूप की चीज नहीं है। इसलिए स्वसन्मुख होते ही वह टल जाता है। अब जो निर्मलपर्याय प्रगट हुई, जो मोक्ष का कारण है, वह भी सम्पूर्ण त्रिकाली स्वरूप नहीं है। तेरा सम्पूर्ण स्वरूप सदा पूर्ण स्वभाव से भरपूर है, उसे तू पहचान! रागादि से भिन्न ऐसे निजस्वरूप को देखना, वह ज्ञानचक्षु का कार्य है। न्याय अर्थात् सच्चा ज्ञान; प्रमाणरूप ज्ञान। वास्तविक 'न्याय' उसे कहते हैं कि जो चैतन्यस्वरूप में ले जाए। जिस प्रकार स्वपरवस्तु का स्वरूप है, उस प्रकार ज्ञान में लेना, वह सच्चा न्याय है। चैतन्यस्वभावरूप वस्तु सत है, उसका ध्यान होता है; सर्वथा असत् का-शून्य का ध्यान नहीं हो सकता है। ध्यान करते हैं - परन्तु किसका? ध्यान में ध्येयरूप कोई सत् होना चाहिए न? तो सत् कैसा है? उसकी पहचान बिना ध्यान धरने जाए, वह तो मात्र कल्पना की तरंग है। जैसे खरगोश के सींग के ध्यान में एकाग्र नहीं
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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