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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
_ ध्रुवतत्त्व है, वह ध्येयरूप है; ध्यानरूप नहीं। ध्रुव स्वयं कहीं ध्रुव का ध्यान नहीं करता; ध्रुव के ध्यान की क्रिया पर्याय द्वारा होती है। अन्तर्मुख स्वभाव में उपयोग को एकाग्र करके उसका ध्यान करने से जब पूर्णदशा होती है, तब मोक्षमार्गरूप अपूर्णदशा का अभाव होता है परन्तु उसका अभाव होने से द्रव्य का अभाव नहीं होता। द्रव्यरूप से कायम रहकर वस्तु में दूसरे समय दूसरी अवस्था होती है। वस्तु किसी समय अवस्था बिना नहीं हो जाती है। देखो, वस्तु में द्रव्य और पर्याय दोनों जैसे हैं, वैसे सिद्ध किये हैं। अकेला. द्रव्य ही वस्तु है और पर्याय कुछ है ही नहीं - ऐसा नहीं है। दोनों होने पर भी पर्याय, ध्येय नहीं है; ध्रुव, ध्येय है, उसमें दृष्टि करने योग्य है। यदि पर्याय को ध्येय बनाने जाएगा तो ध्यान स्थिर नहीं रह सकेगा, तन्मयता नहीं होगी; ध्रुव को ध्येय बनाकर ही तन्मयता और स्थिरता होती है।
शरीरादि संयोग नाशवान, रागादि भाव नाशवान, पर्याय नाशवान; ये कोई ध्यान का अवलम्बन नहीं है। द्रव्यरूप से अखण्ड टिकनेवाला ध्रुव अविनाशी स्वभाव ही धर्मी के ध्यान में अवलम्बन है। भाई! तेरा आत्मा ही ऐसा है, उसे तू ध्येय बना! आत्मा में ज्ञानादि अनन्त स्वभाव ध्रुवरूप (गुणरूप) विद्यमान है, उसे अभेदरूप से ध्याने से वे निर्मलरूप परिणम जाते हैं। इस प्रकार उसमें ध्रुवता और परिणमन दोनों हैं। मेरा ध्रुव आत्मा ही मेरा अवलम्बन है - ऐसा धमी जानता है। ___ आत्मा कैसा है? – यह जाने बिना उसकी श्रद्धा या उसमें एकाग्रता कैसे होगी? अर्थात् धर्म कैसे होगा? द्रव्यरूप से ध्रुव रहनेवाला और पर्यायरूप से पलटनेवाला - ऐसे दोनों भाव होकर