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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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की अलौकिक सिद्धि करके मोक्ष का कारण बताया है। रागबुद्धि तो छुड़ायी है ही; पर्यायबुद्धि भी छुड़ायी है। ध्रुवस्वभाव के ध्येय से मोक्षमार्ग प्रगट होता है किन्तु अंशी, एक अंश में पूरा आ नहीं जाता है। यदि एक अंश में ही पूरा अंशी आ जाए तो अंशी के दूसरे अंश सिद्ध ही नहीं होंगे; इसलिए अंशी भी सिद्ध नहीं होगा। अत: वस्तु में कथञ्चित् अंश-अंशी भेद है, उसे जिस प्रकार है; उसी प्रकार जानकर यथार्थ ज्ञान करना चाहिए।
ज्ञानस्वरूप आत्मा में विचारों का परिवर्तन हुआ करता है - क्षण में क्रोध होता है, फिर दूसरे क्षण में शान्तपरिणाम होते हैं; क्षण में राग बढ़ता है, फिर घटता है; क्षण में आसक्तिता मन्द होती है
और फिर आसक्तिता दृढ़ हो जाती है - ऐसी अवस्थाएँ बदला करती हैं और उसी समय वस्तु में ध्रुवरूप से टिकनेवाला चिदानन्दस्वभाव भी है, उस चिदानन्दस्वभाव में दृष्टि को स्थिर करने से जो निर्मल दशा होती है, वह मोक्षमार्ग है। ध्रुव स्वभाव त्रिकाल है। उसके सन्मुख उपयोग झुकाकर मोक्ष का पन्थ पकड़ा, वह उपशमादि भावरूप पर्याय है। शरीर अथवा राग के आश्रय से तो मोक्षमार्ग है ही नहीं; एक समय की पर्याय का भेद डालकर लक्ष्य में लेने से भी मोक्षमार्ग नहीं होता है। अन्तर के ध्रुव चिदानन्दस्वभाव को अभेदरूप से ध्यान में लेने पर मोक्षमार्ग होता है। पर्याय, ध्यान करने योग्य अर्थात् ध्येय नहीं है; वह ध्यान करनेवाली है परन्तु उसका ध्येय तो अखण्ड तत्त्व है। वह अखण्ड ध्रुवतत्त्व में एकाग्र होकर उसे ध्याती है। आनन्द का पूर मेरा आत्मा है – ऐसा निर्णय करनेवाली पर्याय स्वयं उस आनन्द में मग्न होती है।