________________
170
ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
ऐसी दशा प्रगट करने से ही छुटकारा है; इसके अतिरिक्त दूसरे किसी उपाय से भवभ्रमण का अन्त नहीं आता है।
अरे! ज्ञानी का हृदय गहरा है। उसके रहस्य बाहर से प्राप्त हो जाएँ – ऐसा नहीं है। उसके लिए अन्तर की अपूर्व पात्रता होती है। अकेले नाम के शब्दों के जाप जपा करे, परन्तु उन शब्दों से और शब्दों के विकल्पों से तो ज्ञानी पृथक् हैं, यह न पहचाने तो उसने ज्ञानी को नहीं पहचाना है और ज्ञानी के द्वारा अनुभव किया आत्मा कैसा है ? इसका भी उसे पता नहीं है। ऐसे भान बिना, अनन्त काल व्यतीत हुआ परन्तु धर्म नहीं हुआ। कहाँ से होगा? जिसमें धर्म करना है, उस वस्तु को तो जानता नहीं। अपने स्वरूप की समझ के बिना अन्य सब तो जीव ने बहुत बार किया, परन्तु उसमें क्या हुआ? इस राग-किया से आत्मा पृथक् है - ऐसा भेदज्ञान करना चाहिए, उसके बदले उसी में लाभ मानकर लग रहा है। राग से अलग हटकर, अन्दर ज्ञानस्वभाव में नहीं आया.... ज्ञानचक्षु नहीं खोला.... राग में ही निजघर मानकर अन्धरूप से सो रहा है। ऐसे जीव को ज्ञायकस्वभाव समझाकर, सन्त जगाते हैं कि हे जीव! तू जाग! तेरे ज्ञानचक्षु खोलकर देख.... कि आत्मा तो ज्ञानस्वरूप है, वह रागादि परभावों का कारक या वेदक नहीं और द्रव्य-पर्यायरूप वस्तु मैं द्रव्य अंश और पर्याय अंश, दोनों सर्वथा समान नहीं हैं; उनमें कथञ्चित् भेद है। एक अंश, त्रिकाल है; एक अंश, क्षणिक है - ऐसा समझकर, क्षणिक पर्यायबुद्धि भी छोड़.... और ध्रुवस्वभाव में अपनी बुद्धि जोड़।
वाह ! सन्तों ने कैसा भेदज्ञान कराया है ! द्रव्य-पर्यायरूप वस्तु