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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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अपनी पर्याय बदलता है, उसी समय वह ध्रुवरूप से शाश्वत् है। परिवर्तनपना और शाश्वत्पना दोनों एक साथ हैं – ऐसा ही उसका स्वरूप है।
थिरता एक समय में ठाने, उपजे विनशै तब ही। उलट-पलट ध्रुवसत्ता राखे, या हम सुनी न कबही॥
हे जिनेन्द्र भगवान ! एक ही समय में उत्पाद-व्यय-ध्रुवता होने की ऐसी सूक्ष्म बात, आपके उपदेश के अतिरिक्त दूसरे में कभी भी हमने नहीं सुनी है। एक समय में सम्पूर्ण विश्व को आपने उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप देखा है, यह आपकी सर्वज्ञता की निशानी है। .......
वस्तु को उसके ध्रुवस्वभाव की ओर से देखने पर, वह एकरूप सदृश ऐसी की ऐसी दिखती है और पर्याय की ओर से देखने पर, वह प्रति समय पलटती हुई, विसदृश दिखती है। बदलती अवस्था, ध्यान का विषय नहीं है; ध्यान की नजर ध्रुव पर है। अखण्ड अभेद एकरूप चैतन्यस्वभाव, वह ध्यान का विषय है, उसे पारिणामिकभाव कहा है। पारिणामिकभाव स्वयं उत्पाद-व्यय परिणामरूप नहीं है; इसलिए उसे अपरिणामी कहा है और बन्धमोक्ष सम्बन्धी क्रिया, उसे नहीं होती; इसलिए उसे निष्क्रिय भी कहते हैं।
परिणमन और क्रिया तो पर्याय है; ध्रुव चैतन्यस्वभाव जो कि आनन्द की खान है, उसमें उतरने से, अर्थात् उसमें लक्ष्य एकाग्र करने से शान्ति और आनन्द का वेदन होता है, वह अपूर्वदशा है - ऐसी दशा के बिना अनन्त काल व्यतीत हो गया है परन्तु शान्ति प्राप्त नहीं हुई है। जिसे शान्ति चाहिए हो, उसे वस्तुस्वरूप समझकर