SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 166 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा गया ! और मेरी लक्ष्मी चली जाएगी - ऐसा दुःखी होता था । अरे ! जीव का भ्रम तो देखो ! भाई ! ऐसा स्थूल भ्रम हो, उसे तो पर से भिन्न आत्मा समझ में कैसे आयेगा ? कदाचित् लक्ष्मी का ढेर हो तो उसमें भी कहाँ आत्मा की शान्ति थी और लक्ष्मी चली जाए तो आत्मा कहाँ उसके साथ चला जाता है । व्यर्थ ही भ्रम करके जीव दुःखी होता है। इसी प्रकार किसी को दूसरे भ्रम होते हैं। बाहर के स्थूल भ्रम न हों तो अन्दर ऐसा सूक्ष्म भ्रम होता है कि मैं जो शुभराग करता हूँ, उससे मेरे आत्मा को धर्म का कुछ लाभ होगा..... अथवा उसके कारण मुझे स्वभाव का अनुभव करना सरल पड़ेगा... अरे ! ज्ञानस्वभाव और राग, दोनों की जाति ही अत्यन्त पृथक् है; वहाँ राग के द्वारा स्वभाव का अनुभव कैसे होगा ? यहाँ तो कहते हैं कि बापू ! पुण्यपरिणाम से आत्मा को धर्म का लाभ होगा - ऐसा भ्रम भी छोड़ दे। पुण्य तो उदयभाव है और धर्म तो औपशमिक आदि भाव हैं। शुद्धभावरूप परिणमित आत्मा, उस पुण्यपरिणाम से भिन्न है। उससे भी सूक्ष्म बात यह है कि अन्दर में शुद्धद्रव्य और शुद्धपर्याय, जो कि तेरा स्वभाव है, उसमें भी कथञ्चित् भेद - अभेदपना किस प्रकार है ? उसे पहचान । द्रव्य से पर्याय का कथञ्चित् भिन्नपना है । यदि ऐसा न होवे तो एक के नाश से दूसरे का भी नाश हो जाएगा और वस्तु ही नहीं रहेगी। I यह अनेकान्तस्वरूप वस्तु का रहस्य स्पष्ट होता है। लोगों में 'अनेकान्त-अनेकान्त' तो बहुत कहते हैं परन्तु अनेकान्त वस्तु के गम्भीर रहस्य को नहीं जानते । वस्तुस्वभाव की यह बात सूक्ष्म तो है परन्तु समझ में आने योग्य है । क्यों नहीं समझ में आयेगी ? जिसमें केवलज्ञान लेने की सामर्थ्य है, उसे इस भावश्रुत के अनुभव
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy