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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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जो प्रगट होती है, वह पर्याय; जो कायम है, वह ध्रुव है। जैसे, सामान्य ज्ञायकस्वभाव त्रिकाल है परन्तु उसके अनुभव के काल में उसका आविर्भाव कहा है। अज्ञानी को उसका अनुभव नहीं था; इसलिए उसे सामान्य का तिरोभाव कहा है; पर्याय ने जब अन्तर्मुख होकर ज्ञानस्वभाव को अनुभव में लिया, तब प्रगट तो वह पर्याय हुई है परन्तु उस पर्याय में 'सामान्य का आविर्भाव' कहा है। वहाँ सामान्य कहीं नया नहीं हुआ, परन्तु उसका अनुभव नया प्रगट हुआ है। इसी प्रकार ध्रुवस्वभावरूप द्रव्यसामान्य स्वयं कहीं मोक्षमार्गरूप नहीं होता; मोक्षमार्गरूप तो पर्याय होती है। जिस प्रकार सम्पूर्ण स्वर्ण और उसकी कोई एक अंगूठी आदि दशा - ये दोनों सर्वथा एक नहीं है। यदि सर्वथा एक हो तो अंगूठी दशा का नाश होकर कुण्डल हो ही नहीं सकती, परन्तु अंगूठी या कुण्डल, ये दोनों स्वर्ण की पर्याय हैं, और दोनों दशाओं में स्वर्ण तो स्वर्ण ही है; उसी प्रकार संसार, मोक्षमार्ग या मोक्ष - इन सब दशाओं में द्रव्य तो द्रव्य ही है। वह, वह अवस्था सम्पूर्ण द्रव्य नहीं है, वरना तो पर्याय का अभाव होने से द्रव्य का भी अभाव हो जाएगा। द्रव्य शाश्वत् है और पर्याय पलटती है – ऐसा द्रव्य-पर्यायरूप तत्त्व है।
अरे! अपना ऐसा तत्त्व!! वह जब तक स्वयं को लक्ष्य में न आवे, तब तक भ्रम से अन्यत्र सुख मानता है। स्वभाव को भूले हुए जीवों में अनेक प्रकार के भ्रम चलते हैं। ... मुक्तिगिरी की यात्रा के लिए (संवत् 2015 में) गये थे, तब एक जगह एक करोड़पति व्यक्ति को ऐसा भ्रम था कि 'शनि' का नग पहनने से उससे लक्ष्मी मिलती है - ऐसा वह मानता था। . अत: यदि कहीं वह नग खो जाये तो हाय! हाय!! मानो मैं ही खो