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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
पर्याय के सन्मुख देखा करे, किन्तु द्रव्य के शुद्धस्वभाव को न देखे तो भी उसे अशुद्धता मिटकर, शुद्धता या श्रद्धा-ज्ञान या अनुभव नहीं होता ।
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पर्याय की शुद्धता को द्रव्य के आश्रय से होती है । द्रव्यस्वभाव में अन्तर्मुख एकाग्र हुए बिना, पर्याय की शुद्धता नहीं होती है । द्रव्य और पर्याय दोनों को माने बिना, वस्तु की शुद्धता नहीं साधी जा सकती है। द्रव्य को न माने तो भी शुद्धता नहीं साधी जा सकती और पर्याय को न माने तो भी शुद्धता नहीं साधी जा सकती । एकान्तत: पर्याय जितनी ही वस्तु मान ले तो दूसरे समय में कार्य का अभाव होने से वस्तु का ही अभाव हो जाएगा, अर्थात् बौद्धमत जैसा सर्वथा क्षणिकवाद हो जाएगा, परन्तु ऐसा तो वस्तुस्वरूप नहीं है; और पर्याय न मानकर वस्तु को एकान्त ध्रुव / कूटस्थ माने तो भी पर्याय के परिवर्तन बिना नया कार्य नहीं हो सकेगा । उसमें अद्वैत वेदान्त जैसा एकान्तवाद हो जाएगा।
सर्वज्ञदेव के अनेकान्तमत में एक ही वस्तु को द्रव्य-पर्यायरूप बतलाया गया है, वही यथार्थ वस्तुस्वरूप है । जो बौद्ध की तरह अकेली अवस्था ही मानता है और ध्रुव नहीं मानता; दूसरे जो वेदान्ती की तरह अकेला ध्रुव नित्य ही मानता है और अनित्य पर्याय को नहीं मानता, उसके मत में वस्तु की सिद्धि ही नहीं हो सकती है।
द्रव्य और पर्याय को कथञ्चित् भिन्न कब कहा ? वस्तु में ये दोनों धर्म रहे हुए हैं, तब । यदि ये हों ही नहीं तो 'यह इससे कथञ्चित् भिन्न है' – ऐसा कहना कहाँ रहा ?
अहो ! जिनेन्द्रदेव आपका मत कोई अलौकिक है !! अतीन्द्रिय