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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 159 के सन्मुख हुई उस दशा को, धर्मध्यान अथवा निर्विकल्प अनुभव कहते हैं। वह पर्याय और त्रिकालध्रुव – दोनों भाव सर्वथा एक स्थितिरूप नहीं हैं। यदि सर्वथा एक होवें, तब तो पर्याय का अभाव होने पर, द्रव्य भी कायम नहीं रह सकता। जैसे, चौंसठ पहरी चरपराहट के स्वभाव से भरपूर छोटी पीपल को उसकी पच्चीस पहरी अवस्था के साथ सर्वथा एकता नहीं है। यदि सर्वथा एकता हो, तब तो पच्चीस पहरी में से चौंसठ पहरी कभी नहीं हो सकती। पच्चीस पहरीदशा का अभाव होने पर, उस छोटी पीपल का अभाव हो जाएगा, तब चौंसठ पहरीरूप कौन होगा? इसी प्रकार वस्तु की एक पर्याय ही यदि पूरी वस्तु सर्वथा होवे, तब तो पर्याय मिटकर दूसरी पर्याय नहीं हो सकती; उस पर्याय का नाश होने से वस्तु का ही नाश हो जाएगा; इसलिए द्रव्य-पर्याय को परस्पर कथञ्चित् भिन्नपना है - ऐसा जानना। एक द्रव्यस्वभाव और एक पर्यायस्वभाव – ऐसे दो स्वभावरूप वस्तु का अस्तित्व है। द्रव्यस्वभाव में अतीन्द्रिय आनन्दरस पूर्ण शक्तिरूप है। उसका भान करने से पर्याय में वह आनन्द नया प्रगट होता है, अर्थात् आत्मवस्तु अपने स्वभाव से, वैसे आनन्दरूप परिणमित होती है। इस प्रकार द्रव्य-पर्यायरूप वस्तु में ही कार्यसिद्धि होती है। आत्मा में पर्याय है; पर्याय का अस्तित्व ही न माने, उसे तो कुछ कार्य करने का नहीं होता। अज्ञान मिटाकर, ज्ञान करना; सत्यस्वरूप समझना, श्रद्धा करना, अनुभव करना, मोक्षमार्ग साधना; अशुद्धता मिटाकर, शुद्धता करना, ये सब पर्याय में ही होता है। पर्याय के स्वीकार बिना यह कुछ नहीं हो सकता और अकेली
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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