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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
स्वयं तो मोक्षदशा होने पर व्यय हो जाएगी, वह कहीं द्रव्य की तरह कायम नहीं रहेगी। त्रिकाल परमस्वभावरूप द्रव्य तो अवस्थाओं के समय अनादि-अनन्त धारावाही एकरूप रहनेवाला है। पर्याय अंश, स्वयं द्रव्य नहीं है। पर्याय और द्रव्य, ये दोनों अंश यदि एक ही हो जाएँ तो अंश से पृथक् अंशी न रहने से, अंश के नाश के साथ उसका भी नाश हो जाएगा। इसलिए दोनों अंश, दोनों धर्म कथञ्चित् भिन्न हैं - ऐसी वस्तुस्थिति समझने से अंशबुद्धि मिटकर, आत्मस्वरूप का सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होता है।
देखो! यह आत्मा के अपने अन्दर के भावों की बात है। मोक्षमार्ग की पर्याय कैसे प्रगट हो और उसका 'भाव' कौन सा है? वह पहचानना चाहिए। परचीज तो आत्मा से सर्वथा भिन्न है। शरीर, आत्मा से सर्वथा भिन्न, कर्म आत्मा से सर्वथा भिन्न; अब अपने द्रव्य अंश और पर्याय अंश के बीच भिन्नता किस प्रकार है ? -- यह उसकी बात चलती है। अभी तो जिसे पर से भिन्नता की बात भी नहीं जमती, उसे अन्तर की यह सूक्ष्म बात कैसे समझ में आयेगी? ... भाई! तेरी प्रवर्तमानदशा में तुझे कुछ नया करना है न! तो नया होवे वह क्या और वह कैसे होगा? – इसे लक्ष्य में ले। प्रथम तो जो नया होता है, वह द्रव्य नहीं होता, परन्तु पर्याय होती है। पर्याय क्षणिक है; इसलिए वर्तमान पर्याय बदलकर, दूसरी नयी होती है। अब, उस नयी पर्याय में सुख, शान्ति और आनन्द कब होता है ? जिसमें सुख, शान्ति और आनन्द भरा है – ऐसे शाश्वत् स्वभाव के सन्मुख देखने से पर्याय में वह सुख प्रगट होता है। इस स्वभावसन्मुख होने को मोक्ष की क्रिया कहते हैं । त्रिकाल स्वभाव