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________________ 155 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा पारमार्थवचनिका में पण्डित बनारसीदासजी कहते हैं कि 'शुद्धात्मद्रव्य अक्रियरूप, वह निश्चय और मोक्षमार्ग साधना, वह व्यवहार - ऐसे निश्चय - व्यवहार का स्वरूप सम्यग्दृष्टि जानता है ।' धर्मी जानता है कि ज्ञानस्वरूप त्रिकाली शुद्धद्रव्य, वह मेरा निश्चय और उसके आश्रय से प्रगट हुई शुद्धपर्याय, वह मेरा व्यवहार है; इसके अतिरिक्त रागादि परभाव तो मुझसे बाह्य हैं। देखो, यहाँ कौन सा व्यवहार लिया ? शुद्धात्मा के आश्रित निर्मलपर्याय द्वारा मोक्षमार्ग को साधना, वह धर्मी का व्यवहार है। अज्ञानी को ऐसा व्यवहार नहीं होता है और ऐसे निश्चय - व्यवहार को वह जानता भी नहीं है। शुद्धद्रव्य, वह निश्चय और शुद्धपर्याय, वह व्यवहार; इस प्रकार निश्चय-व्यवहार दोनों को एक ही वस्तु के अंग बतलाये हैं। ऐसा जानकर, हे जीव ! तेरे स्वद्रव्य के आश्रय से ही - तू अपने मोक्षमार्ग को साध ! तेरा मोक्षमार्ग साधने में तुझे जगत में किसी की खुशामद करनी पड़े- ऐसा नहीं है; तेरे आत्मा के आश्रय से ही तेरा मोक्षमार्ग है। तू अकेला, अकेला तुझमें और तुझमें ही तेरा मोक्षमार्ग साध सकता है। वाह ! कैसी स्वतन्त्र वस्तुस्थिति है ! अपने में अभेद शुद्धद्रव्य, वह निश्चय और मोक्षमार्ग साधनेरूप पर्याय का भेद, वह व्यवहार - इसमें राग और निमित्त तो कहीं रह गये । राग को व्यवहार नहीं कहा, परन्तु अपनी शुद्धपर्याय को ही द्रव्य का व्यवहार कहा है। त्रिकाल द्रव्य एकरूप अक्रिय, वह निश्चय; पर्याय के परिणमनरूप क्रिया, वह व्यवहार - ऐसे निश्चय - व्यवहार को अपने में जानकर, धर्मी मोक्षमार्ग को साधता है। निश्चयदृष्टि के विषय में पर्याय के भेद नहीं आते हैं। भले ही
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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