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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
पारमार्थवचनिका में पण्डित बनारसीदासजी कहते हैं कि 'शुद्धात्मद्रव्य अक्रियरूप, वह निश्चय और मोक्षमार्ग साधना, वह व्यवहार - ऐसे निश्चय - व्यवहार का स्वरूप सम्यग्दृष्टि जानता है ।' धर्मी जानता है कि ज्ञानस्वरूप त्रिकाली शुद्धद्रव्य, वह मेरा निश्चय और उसके आश्रय से प्रगट हुई शुद्धपर्याय, वह मेरा व्यवहार है; इसके अतिरिक्त रागादि परभाव तो मुझसे बाह्य हैं। देखो, यहाँ कौन सा व्यवहार लिया ? शुद्धात्मा के आश्रित निर्मलपर्याय द्वारा मोक्षमार्ग को साधना, वह धर्मी का व्यवहार है। अज्ञानी को ऐसा व्यवहार नहीं होता है और ऐसे निश्चय - व्यवहार को वह जानता भी नहीं है।
शुद्धद्रव्य, वह निश्चय और शुद्धपर्याय, वह व्यवहार; इस प्रकार निश्चय-व्यवहार दोनों को एक ही वस्तु के अंग बतलाये हैं। ऐसा जानकर, हे जीव ! तेरे स्वद्रव्य के आश्रय से ही - तू अपने मोक्षमार्ग को साध ! तेरा मोक्षमार्ग साधने में तुझे जगत में किसी की खुशामद करनी पड़े- ऐसा नहीं है; तेरे आत्मा के आश्रय से ही तेरा मोक्षमार्ग है। तू अकेला, अकेला तुझमें और तुझमें ही तेरा मोक्षमार्ग साध सकता है। वाह ! कैसी स्वतन्त्र वस्तुस्थिति है ! अपने में अभेद शुद्धद्रव्य, वह निश्चय और मोक्षमार्ग साधनेरूप पर्याय का भेद, वह व्यवहार - इसमें राग और निमित्त तो कहीं रह गये । राग को व्यवहार नहीं कहा, परन्तु अपनी शुद्धपर्याय को ही द्रव्य का व्यवहार कहा है। त्रिकाल द्रव्य एकरूप अक्रिय, वह निश्चय; पर्याय के परिणमनरूप क्रिया, वह व्यवहार - ऐसे निश्चय - व्यवहार को अपने में जानकर, धर्मी मोक्षमार्ग को साधता है।
निश्चयदृष्टि के विषय में पर्याय के भेद नहीं आते हैं। भले ही