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________________ 156 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा निर्मलपर्याय हो, परन्तु वह व्यवहारदृष्टि का विषय है। निर्मलपर्याय होती तो निश्चय के, अर्थात् त्रिकाली द्रव्य के आश्रय से है परन्तु उसे भेद पाड़कर देखना, वह व्यवहार है। भाई! एकरूप रहनेवाला भी तू और निर्मलभावरूप परिणमित होनेवाला भी तू.... ऐसे द्रव्य -पर्यायरूप तेरे आत्मा की लीला तो देख! वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है। भाई ! तेरे तत्त्व में जो सामर्थ्य भरा है, वह तुझसे जो हो सके, वैसा है, उसकी ही यह बात है। सन्तों ने स्वयं आत्मा में जो किया, वही तुझे बतलाते हैं। अहा! आत्मा के स्वानुभव से मोक्ष को साधने का अवसर तुझे हाथ में आया है। इसलिए हे जीव! तू जाग... जागकर अपने शुद्ध उपादान को सम्हाल और शुद्धद्रव्य के सन्मुख होकर शुद्धपर्याय की अपूर्व धारा उल्लसित कर! सन्तों के प्रसाद से अब सब अवसर आ चुका है। - आत्मवस्तु के जो पाँच भाव हैं, उनमें पारिणामिकभाव, परमभाव है, उसका कभी अभाव नहीं होता; पर्याय में जो चार भाव हैं, वे उत्पन्नध्वंसी है; अशुद्धता का नाश होता है और आंशिक शुद्धतारूप मोक्षमार्ग प्रगट होता है; मोक्षमार्ग का नाश होता है और मोक्षदशा प्रगट होती है परन्तु जो परमभावरूप द्रव्य है, उसका नाश भी नहीं होता और वह प्रगट भी नहीं होता। इस प्रकार पलटती पर्याय और • शाश्वत् द्रव्य - ऐसा वस्तुस्वरूप है। .. वस्तु में द्रव्य-अपेक्षा से परिणमन नहीं है, पर्याय-अपेक्षा से परिणमन है; इसलिए द्रव्य को अपरिणामी अथवा अक्रिय भी कहते हैं और स्वसन्मुख होकर मोक्षमार्ग साधनेरूप पर्याय, वह क्रिया है - ऐसी वीतरागमार्ग की रीति है। समवसरण में सर्वज्ञदेव
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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