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________________ 154 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा अवलम्बन नहीं है; पर्याय अन्तर्मुख होकर शुद्धात्मा में अभेद हुई, अर्थात् उसने शुद्ध आत्मा का अवलम्बन लिया - ऐसा कहा जाता है परन्तु 'यह पर्याय और इसके द्वारा मैं शुद्धात्मा का अवलम्बन लूँ' – ऐसे कहीं दो भेद नहीं हैं। दो भेद के लक्ष्य में रुके, तब तक शुद्धात्मा का अवलम्बन नहीं होता है - अनुभव नहीं होता है, अर्थात् पर्याय के भेद के आश्रय से मोक्षमार्ग नहीं होता है। मोक्षमार्ग एकरूप आत्मा के ही आश्रय से होता है। द्रव्य-अपेक्षा से देखने पर परिणमन नहीं है; परिणमन तो पर्याय-अपेक्षा से है। ऐसे द्रव्य -पर्याय, दो में से सच्चा क्या? तो कहते हैं, दोनों सच्चे; आत्मा स्वयं द्रव्य-पर्यायरूप एक वस्तु है। ___अहो! भगवान का अनेकान्तमार्ग अलौकिक है - ऐसे स्याद्वाद की सुगन्ध अलग है। मिथ्यादृष्टि को उसका पता नहीं है। जीव के पाँच भाव की ऐसी बात सर्वज्ञ भगवान के अतिरिक्त दूसरे के शासन में नहीं होती है। भगवान के द्वारा कथित मोक्ष का मार्ग, औपशमिक आदि तीन निर्मलभावोंरूप है। वह रागादि औदयिक भावरूप नहीं है तथा त्रिकाल शुद्धपारिणामिकभावरूप भी नहीं है; उस-उस समय की मोक्षमार्ग-पर्याय, क्षायिकादि भावस्वरूप है। पारिणामिक परमभाव त्रिकाल सत्रूप है। उस पारिणामिकभाव के कारण क्षायिकभाव सत् है - ऐसा नहीं है। क्षायिक आदि भाव और पारिणामिकभाव, दोनों सत् हैं। उनमें क्षायिक आदि भाव, त्रिकाली पारिणामिकभाव के आश्रय से हैं - ऐसा कहा जाता है परन्तु उनमें कारण-कार्यपना नहीं है क्योंकि परमपारिणामिकभाव में उत्पाद-व्ययरूप या बन्ध-मोक्षरूप क्रिया नहीं होती है - इस अपेक्षा से उसे निष्क्रिय भी कहते हैं।
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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