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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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को साधनेवाले सन्त तो सिद्ध के मित्र हैं, सिद्ध के साधर्मी हैं.... संसारभावों से दूर-दूर और अन्तर में सिद्ध के साधर्मी होकर, वे मोक्षमार्ग को साध रहे हैं। ऐसे वीतरागी सन्तों की यह वाणी है। ऐसे सन्त कहीं देखने को मिलें तो उनके चरण की सेवा करें और उनकी वाणी सुनें।
भाई! यह तो मोक्षमार्ग को साधने की बात है, और मोक्ष को साधनेवाले सन्तों द्वारा कही गयी है। किसके ध्यान से मोक्ष सधता है? और उसके साधनरूप भाव कैसा होता है? ये दोनों बातें समझाते हैं। अन्दर ही अन्दर तुझमें समस्त भावों की यह क्रीड़ा है, शुद्धात्माभिमुख मोक्षमार्गरूप जो पर्याय है, वह पारिणामिकभाव लक्षणरूप द्रव्य से कथञ्चित् भिन्न है। किसलिए कि वह भावनारूप होने से। भावना, स्वयं द्रव्य नहीं, परन्तु पर्याय है; इस अपेक्षा से उसे द्रव्य से कथञ्चित् भिन्न कहा है। शुद्धपारिणामिक द्रव्य है, वह भावनारूप नहीं है। भावना, वह शुद्धपर्याय है; वह पर्याय है तो आत्मवस्तु में, कहीं अन्यत्र नहीं है परन्तु द्रव्य की तरह पर्याय में ध्रुवपना नहीं है; इसलिए उसे द्रव्य से कथञ्चित् भिन्न कहा है - ऐसा जानना।
वस्तु में द्रव्य और पर्याय, इन दोनों को कथञ्चित् भिन्नपना न होवे और सर्वथा दोनों एक ही हों तो पर्याय का नाश होने से द्रव्य का भी नाश हो जाएगा, परन्तु ऐसा नहीं होता है। उत्पाद-व्यय, पर्याय में है; द्रव्य अपेक्षा से देखने पर उत्पाद-व्यय दिखायी नहीं देते हैं, ध्रुवता ही दिखती है। मोक्षमार्ग, पर्याय है। उस पर्याय में ऐसे शुद्धद्रव्य का अभेद अवलम्बन है। उसमें पर का अवलम्बन नहीं है, राग का अवलम्बन नहीं है, गुण-भेद का या पर्याय-भेद का