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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 151. - ध्यान कहेंगे, - निर्विकार स्वसंवेदन कहेंगे, - एकदेश व्यक्ति / प्रगटता कहेंगे - इस प्रकार अनेक नामों द्वारा जीव के भाव की पहचान करायी है। अधिक स्पष्टता करने के लिए उस भाव को द्रव्य से कथञ्चित् भिन्न कहा है। त्रिकालभाव वह द्रव्य; उसकी भावना से प्रगट हुआ निर्मलभाव, वह पर्याय है। पारिणामिक त्रिकालभाव है, उसके साथ औपशमिक आदि क्षणिकभाव एकान्त अभेदरूप नहीं है। यदि एकान्त अभेद हो तो एक का नाश होने पर, दूसरे का भी नाश हो जाएगा, परन्तु ऐसा नहीं होता है; इसलिए उनमें कथञ्चित् भिन्नता जानना चाहिए। भावनारूप जो मोक्षमार्ग पर्याय है, वह मोक्षदशा होने पर विनाश को प्राप्त होती है परन्तु द्रव्यरूप जो परमभाव है, वह ध्रुव रहता है; उसका नाश नहीं होता; वह भावनारूप नहीं है, मोक्षमार्गरूप नहीं है, उत्पाद-व्ययरूप नहीं है, उसे औपशमिक आदिपना लागू नहीं होता; वह एक पारिणामिकभावरूप है। आत्मा, अरूपी वस्तु है; इसलिए उसके भाव भी अरूपी हैं। अरूपी होने से सूक्ष्म हैं, परन्तु लक्ष्य रखे तो समझ में आ सकता है क्योंकि समझनेवाला स्वयं भी सूक्ष्म-अरूपी है। ध्रुव चैतन्य स्तम्भ – जिसके आस-पास, अर्थात् जिसे अवलम्बन कर पर्याय फिरती है, उस स्वभाव की भावना मोक्षमार्ग है। परमभाव की यह भावना विकल्परूप नहीं, और ध्रुवरूप नहीं, परन्तु शुद्धता की अनुभूतिरूप है, अर्थात् पर्यायरूप है। __मोक्षमार्ग में जो सम्यग्दर्शन है, वह दो नहीं - एक रागवाला
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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