SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 150 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा मोक्षमार्ग भी अनादि-अनन्त होना चाहिए, परन्तु मोक्षमार्ग/ पर्याय तो नयी प्रगट होती है और मोक्ष होने पर वह पर्याय नष्ट हो जाती है। पर्याय जितना ही द्रव्य होवे तो उस पर्याय का नाश होने पर, द्रव्य का भी नाश हो जाएगा, परन्तु ऐसा नहीं होता है। पर्याय का नाश होने पर भी, द्रव्य ऐसा का ऐसा स्थायी रहता है और दूसरे समय वस्तु में दूसरी पर्याय होती है। यह तो सर्वज्ञदेव के शासन का अलौकिक अनेकान्तमार्ग है। जिसे मोक्षमार्ग कहा, उसे औपशमिक आदि भाव कहा, जिसे शुद्धोपयोग इत्यादि नाम कहे, वह स्वसन्मुख भावरूप निर्मलपर्याय, त्रिकाली द्रव्य से कथञ्चित् भिन्न है क्योंकि वह स्वयं भावनारूप है। भावना, अर्थात् मोक्षमार्ग.... यह भावना, विकल्प नहीं, परन्तु रागरहित परिणति है, उस परिणति को यहाँ भिन्न-भिन्न प्रकार से तेरह नाम से पहचान कराया है। - पहले उसे श्रुतज्ञान कहा, - अभेदनय से शुद्धज्ञानपरिणत जीव कहा, - शुद्धउपादान कहा, - भव्यत्वशक्ति की व्यक्ति कहा, - निज परमात्मद्रव्य के सम्यक्श्रद्धान, ज्ञान, अनुचरण कहा, - औपशमिक आदि तीन भाव कहा, - शुद्धात्माभिमुख परिणाम कहा, - शुद्धोपयोग कहा, - भावना कहा, - मोक्ष के कारणभूत क्रिया कहेंगे,
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy