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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 147 को पहचाने बिना बाहर से धर्म मानकर, अनन्त काल भ्रम में व्यतीत किया है। स्वसन्मुख होने के बदले, धर्म के नाम से बाहर में व्यर्थ झपट्टे मारता है। ___ बापू! तेरे सत्यस्वरूप के ज्ञान बिना तू तेरे उपयोग को किसमें जोड़ेगा और किससे हटायेगा? तुझमें ऐसा कौन-सा स्वभाव है कि जिसमें तेरा उपयोग स्थिर रह सके और जिसमें उपयोग को स्थिर करने से शान्ति और आनन्द का अनुभव हो? वह वस्तु यहाँ तुझे बतलाते हैं। तेरी इस वस्तु को तू पहचान.... तो भवभ्रमण से तेरा छुटकारा होगा। परलक्ष्य से हुई अशुद्धदशा का, अपने शुद्ध चिदानन्दस्वभाव के लक्ष्य से नाश होता है और शुद्धता प्रगट होती है। यही भव के अभाव का और मोक्ष की प्राप्ति का उपाय है। . स्वभावसन्मुख परिणमन, मोक्षमार्ग है; निज पस्मात्म वस्तु के आश्रय से मोक्षमार्ग है; पर के लक्ष्य से मोक्षमार्ग नहीं है। सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र, तीनों स्वाश्रित शुद्धपरिणाम हैं, उनमें पर का या राग का अवलम्बन किञ्चित् नहीं है। ये तीनों भाव, शुद्धात्मा के सन्मुख हैं और पर से विमुख हैं। इस प्रकार मोक्षमार्ग अत्यन्त निरपेक्ष है, परम उदासीन है। जितने परसन्मुख पराश्रित रागादि व्यवहारभाव हैं, वे कोई भी मोक्षमार्ग नहीं हैं। स्वाभिमुख स्वाश्रित परिणाम में व्यवहार के राग की उत्पत्ति नहीं होती है; इसलिए वे रागादिभाव, मोक्षमार्ग नहीं हैं; जो स्वाश्रित निर्मलभाव है, वही मोक्षमार्ग है। यह मोक्षमार्ग पर्याय, अन्तर के कारणपरमात्मा में एकाग्र होकर परिणमित हुई है, इस कारण द्रव्य-पर्याय के अभेद की अपेक्षा से नियमसार में कारणपरमात्मा को ही मोक्ष का कारण कहा है और द्रव्य-पर्याय का भेद डालना, वह सब व्यवहार है।
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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