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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
कहो, वही निश्चयमोक्षमार्ग है, वही केवलीभगवान की परमार्थ स्तुति है; धर्म के जितने नाम हैं, वे सब इस एक पर्याय को लागू पड़ते हैं। ___ अज्ञान से आत्मा की दशा, परसन्मुख और पुण्य-पाप के सन्मुख ढलती थी, वह गुलाँट खाकर अब स्व आत्मा के सन्मुख ढलती है कि अरे! यह पुण्य-पाप के परभाव मैं नहीं हूँ, मेरा चैतन्य इनसे भिन्न है; मैं आनन्दमय शाश्वत् चैतन्यवस्तु हूँ। पहले गुरुगम से जैसा है, वैसा वस्तुस्वरूप लक्ष्य में लिया है, तत्पश्चात् प्रयोग करके उपयोग को अन्तर में जोड़ता है, और साक्षात् अनुभव करता है - यह मोक्ष को साधने का मार्ग है।
तू ध्रुवस्वभाव का लक्ष्य कर - ऐसा कहने से, पहले कहीं पर में लक्ष्य था, वह लक्ष्य बदलकर स्व में लक्ष्य किया और लक्ष्य करनेवाला ध्रुवरूप से टिका रहा; इस प्रकार उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य तीनों आ गये। इसके बिना 'तू ध्रुव का लक्ष्य कर' ऐसा उपदेश नहीं हो सकता। अशुद्धपरिणाम गये, और शुद्धपरिणाम हुए - वे कहाँ से हुए? जो अशुद्धपरिणाम गये, उनमें से तो शुद्धपरिणाम नहीं आते; वस्तु स्वयं द्रव्यरूप से ध्रुव टिककर दूसरे समय में शुद्धपरिणामरूप से परिणमित हुई है। उस परिणामरूप, ध्रुव स्वयं नहीं हुआ, पूर्व की पर्याय उसरूप नहीं हुई, पर में से वह नहीं आया, परन्तु वस्तु स्वयं उस समय के अपने पर्यायधर्म से वैसे भावरूप परिणमित हुई है। (जिस भाव में प्रणमे दरव, उस काल तन्मय वह कहा - अर्थात्, पर्यायदृष्टि से उस-उस काल के परिणाम के साथ वस्तु तन्मय है, तद्रूप है; पृथक् नहीं है।) इस प्रकार अपने शुद्धपरिणाम, स्वयं से ही होते हैं - ऐसी वस्तुस्थिति