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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा में ढली हुई होवे तो मोक्ष का कारण है और बहिर्मुख परभाव में ढली हुई हो तो बन्ध का कारण है। इस बन्ध-मोक्ष की क्रीड़ा तेरी पर्याय में ही समाहित होती है; दूसरा कोई तेरे बन्ध-मोक्ष का कारण नहीं है। अपने परमस्वभाव में एकाग्र होकर आनन्द का अनुभव करनेवाली ध्रुव में ढली हुई, ध्रुव में मिली हुई दशा, वह मोक्षमार्ग है, वह धर्म है । ध्रुवसामान्य को ध्येय में लेकर जो दशा प्रगट हुई है, वह नयी है; ध्रुव नया नहीं प्रगट हुआ है परन्तु निर्मल अवस्था नयी प्रगट हुई है और उस समय मिथ्यात्व आदि पुरानी अवस्था का नाश हुआ है। नाश होना और उत्पन्न होना, यह पर्याय - आश्रित है; टिकना, वह द्रव्याश्रित है; वस्तु द्रव्य-पर्यायस्वरूप है। 145 देखो, द्रव्य और पर्याय का ऐसा अलौकिक सत्यस्वरूप, सर्वज्ञ भगवान ने साक्षात् देखकर उपदेश किया है। यह तो केवलज्ञान के घर की और आत्मा के स्वभाव की गम्भीर बातें हैं, जिन्हें समझने से आत्मा निहाल हो जाता है और इसके फल में केवलज्ञान प्राप्त करे - ऐसी यह बात है । ( श्रोता : अहो ! हमें महाभाग्य से यह बात सुनने को मिली। पञ्चम काल में अमृत वर्षा कर, आपने हमें निहाल किया; विदेहक्षेत्र की वाणी आपने हमें प्रदान की.... 1) देखो, यह तो वीतराग का मार्ग है। समवसरण के मध्य में सीमन्धर भगवान ऐसा उपदेश दे रहे हैं । आत्मा के उपयोग का अन्तर्मुख व्यापार, अर्थात् अन्तर्मुखपरिणति, वह शुद्धभावरूप धर्म है और जो राग-द्वेषरूप बहिर - व्यापार, वह अशुद्धभाव है, अधर्म है । ध्रुवस्वभाव में अन्तर्मुखपरिणाम की एकाग्रता को शुद्धोपयोग कहो, आत्मधर्म कहो, वीतरागभाव कहो, या सच्ची सामायिक
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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