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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
साक्षात्कार करता है, अर्थात् उसमें एकाग्र होता है । राग से भगवान का साक्षात्कार नहीं होता, परन्तु निर्मलपर्याय से भगवान की भेंट होती है, अनुभव होता है । ऐसी अनुभूति को शुद्धपरिणमन कहते हैं । अन्तर्मुख अवस्था कहो, उपशमादि तीन भाव कहो, मोक्षमार्ग कहो, अतीन्द्रिय आनन्द कहो, परमात्मा का साक्षात्कार कहो इस प्रकार तत्त्वज्ञानी उसे अनेक नामों से पहचानते हैं।
क्षायिकभाव, सम्पूर्ण निर्मल है, वहाँ कर्म का सर्वथा अभाव है।
निर्मलता के साथ किञ्चित् मलिनता अथवा आवरण होता है, वह क्षयोपशमभाव है।
नितरे हुए पानी की तरह मैल नीचे बैठ जाता है - ऐसा निर्मलभाव, उपशमभाव है ।
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कर्म के उदय के साथ सम्बन्ध रखनेवाला, उदयभाव है। कर्म के उदय-उपशम-क्षय या क्षयोपशम के साथ जिसे सम्बन्ध नहीं हैं, उदयादि चारों अवस्थाओं के समय भी जो एकरूप वर्तता है - ऐसा कर्म से निरपेक्ष सहज स्वभाविकभाव, वह पारिणामिकभाव है ।
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अनादि-अनन्त एकरूप त्रिकाल परमस्वभाव, वह ध्रुव द्रव्यरूप है और मोक्षमार्ग उस परमात्मभाव के आश्रय से प्रगट हुई पर्यायरूप है, वह त्रिकालरूप नहीं । एक त्रिकालभाव और एक पर्याय भाव – ऐसे द्रव्य - पर्यायरूप दोनों स्वभाव, वस्तु में एक साथ हैं; वस्तु कभी पर्यायरहित नहीं होती; प्रत्येक समय नयीनयी पर्यायरूप परिणमा करती है। वह पर्याय यदि अन्तर्मुख स्वभाव