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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
बतलाया - ऐसी वस्तुस्थिति है। जब तक यह वस्तुस्थिति लक्ष्य में न आवे, तब तक जीव के सब प्रयोग निष्फल जाते हैं, उसे धर्म नहीं होता है।
द्रव्य-पर्यायरूप वस्तु, पूरा पदार्थ है। यदि वे दोनों न हों और अकेली अवस्था हो तो वह अवस्था किसके आधार से होगी? दूसरे समय की दूसरी अवस्थारूप कौन होगा और यदि अकेला ध्रुव ही हो, उत्पाद-व्यय न हो तो कार्य किसमें होगा? परिणमन किसमें होगा? ध्रुव तो कार्यरूप होता नहीं, कार्यरूप तो पर्याय है। जिसे अनादि का अधर्म मिटाकर, धर्मरूप कार्य करना है, उसे वह कैसे होगा? द्रव्य-पर्यायरूप वस्तु को समझे तो ही होगा। उस वस्तु को यहाँ पाँच भाव द्वारा बतलाया गया है। . आत्मवस्तु में पाँच भाव, उनमें एक पारिणामिक परमभाव, वहं द्रव्यरूप और दूसरे चार भाव, पर्यायरूप होने से उनमें से किस भाव से मुक्ति होती है? वह यहाँ विचार करना है। . आत्मा में ज्ञान या अज्ञान अवस्था तो अनादि से हुआ ही करती है परन्तु 'पुण्य-पाप, वह मैं; देह की क्रिया का कर्ता, वह मैं' - ऐसी भ्रान्तिदशा, वह अज्ञान-अधर्म और दुःखदशा है। देह से भिन्न और पुण्य-पाप से पार – ऐसे परमस्वभाव के सन्मुख होने से, वह अधर्मदशा मिटकर धर्मदशा होती है। ____ धर्म तो धर्मी में से प्रगट होता है। धर्मी-ऐसे निज चैतन्य स्वभाव पर लक्ष्य जाए, वहाँ धर्म प्रगट होता है। अनादि से एकान्ततः पर के प्रति लक्ष्य है, अर्थात् पुण्य-पाप, राग-द्वेष, हर्ष-शोक और शरीरादि ही मैं हूँ; उनका कर्ता-भोक्ता मैं हूँ - ऐसी मिथ्याबुद्धि है, वह अधर्म है, वह दु:ख का मूल है; उस मिथ्याबुद्धि को छोड़कर