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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा - 'मैं तो ज्ञान हूँ' – ऐसे अन्तरस्वभाव में लक्ष्य करना, धर्म है। 'लक्ष्य' स्वयं अवस्था है परन्तु उसका ध्येय, ध्रुव है। ऐसे स्वभाव - सन्मुख लक्ष्य से जो निर्मलदशा प्रगट होती है, वह मोक्ष का साधन है; उसे सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र कहते हैं, उसे कालादि लब्धिवश भव्यत्व की व्यक्ति हुई – ऐसा कहो ; उसे स्वसन्मुख परिणति कहो; औपशमिकादि भावत्रय कहो; या परमार्थ तत्त्व की भावना इत्यादि चाहे जिस नाम से कहो; उस स्वभावसन्मुखता में पुरुषार्थ, स्वभाव, काल इत्यादि पाँचों समवाय समाहित हो जाते हैं । यह मूलतत्त्व की बात समझने के लिए, अन्तर में आत्मा की बहुत सावधानी और एकाग्रता चाहिए। 141 आत्मा में मोक्ष की शक्ति, त्रिकाल है। शक्तिरूप मोक्ष सदा पारिणामिकभावपने है, वह पर्याय में व्यक्त हो, उसकी यह बात है । पर्याय में मोक्षदशा की व्यक्ति, पर्याय की सामर्थ्य द्वारा होती है, उसका कारण पर्याय है। कौन सी पर्याय ? औपशमिक आदि तीन भावोंरूप। उस भावरूप से परिणमित धर्मी आत्मा कैसा होता है ? यह बात आचार्यदेव ने इस गाथा में चक्षु के दृष्टान्त द्वारा समझायी है । आत्मा, अनन्त अमृतरस का समुद्र चैतन्यरत्नाकर है, वह नित्य ध्रुवरूप से टिकता है और उसमें उत्पाद - व्ययरूप पर्याय की तरङ्गे उल्लसित होती हैं । आत्मा का क्षेत्र भले ही अल्प, परन्तु उसमें भाव की अनन्त अपरिमितता है, अचिन्त्यतता है - ऐसे जिन भावों से भरपूर यह भगवान है, यह पूर्ण शुद्ध आनन्द अमृत का समुद्र है ऐसे चैतन्यसमुद्र में डुबकी लगाकर भगवान आत्मा के सन्मुख होने से जो दशा प्रगटी, वह आनन्द है, वह ज्ञानमय है; उसमें रागादि परभाव का कर्ता-भोक्तापना नहीं है। -
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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