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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 139 - भाव तो तूने अनन्त काल से किये हैं, अब तो परिणाम को अन्तरोन्मुख कर! अरे! शुभराग, धर्म नहीं है - ऐसी सत्य बात कहने पर भी जो लोग भड़कते हैं, वे रागरहित स्वभाव में कैसे आयेंगे? उन्होंने धर्म की बात सुनी नहीं है, धर्म के नाम से राग की ही बात सुनी है परन्तु अपने स्वभावरूप धर्म क्या है? वह लक्ष्यपूर्वक कभी सुना नहीं है और उस प्रकार की पात्रता नहीं है; इसलिए भड़कते हैं... परन्तु भाई ! तू भड़क मत! ज्ञानी तुझे तेरा पवित्र स्वभाव बतलाकर, तेरे हित की विधि समझाते हैं। राग कहाँ तेरे स्वभाव की सन्मुखता का भाव है ? स्वभावसन्मुख नजर करते ही तुझे तेरा आत्मा, राग से स्पष्ट भिन्न दिखेगा। धर्म तो स्वभाव की सन्मुखता से होता है, कहीं राग से धर्म नहीं होता है। ___द्रव्यरूप से शाश्वत् चिदानन्दवस्तु आत्मा की अनित्यपर्याय में दुःख का या आनन्द का अनुभव होता है। पर्याय के पलटे बिना दु:ख मिटकर, सुख का अनुभव नहीं हो सकता; इस प्रकार वस्तु तीनों काल द्रव्य-पर्यायसहित है। वस्तु के दो पहलू हैं, वे दोनों पहलू ज्ञान में न आवे, तब तक वास्तविक तत्त्व का स्वीकार ज्ञान में नहीं आता, अर्थात् सम्यग्ज्ञान नहीं होता। चिदानन्द वस्तु में द्रव्य अवयव शाश्वत् ध्रुव पारिणामिकभावस्वरूप है और पर्याय में मिथ्यात्व अवस्था, सम्यक्त्व अवस्था, शुद्धि की वृद्धिरूप अवस्था और पूर्ण शुद्ध अवस्था – ऐसे प्रकार होते हैं। वे पर्यायें चार भावरूप, अर्थात् औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक या क्षायिकभावरूप होती हैं। उसमें से औदयिकभाव के अतिरिक्त तीन भाव, मोक्ष के हेतु हैं। चार भावों के कथन द्वारा ध्रुवद्रव्य
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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