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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
और अजीव तो त्रिकाल भिन्न तत्त्व हैं। सन्मुख-परिणाम में उपशम, क्षयोपशम और क्षायिकभाव आये; विमुख-परिणति में उदयभाव आया; त्रिकाली द्रव्य पारिणामिकभावरूप है। (स्वभाव) सन्मुख परिणाम की उत्पत्ति हुई, वहाँ विमुख परिणति का व्यय हुआ और द्रव्यरूप से ध्रुवता रही।
अहो! संक्षिप्त सूत्रों में तो जैन सिद्धान्त का गम्भीर रहस्य भर दिया है। बापू! ऐसे वस्तुस्वरूप के निर्णय बिना, दूसरे किसी प्रकार मोक्ष का मार्ग नहीं है.... नहीं है... नहीं है ! शुभराग भले साधकदशा में आवे, परन्तु उससे मुक्ति नहीं है। जो उसे मोक्ष का कारण मानता है, उसे साधकदशा नहीं होती है; साधक को जितना रागरहित स्वभावसन्मुख भाव है, वही मोक्ष का कारण है। ___ भाई... यह समझने जैसा है। न समझ में आये – ऐसा कठिन नहीं है। तेरे ज्ञान में सब समझ सकने की सामर्थ्य है परन्तु उसके लिए ज्ञान की रुचि से, उत्साह से प्रयत्न करना चाहिए। दुकान के व्यापार में कितनी अधिक वस्तुओं के भाव याद रखता है, क्योंकि उसका प्रेम है; उसी प्रकार यदि चैतन्यवस्तु का प्रेम करके उसके भाव, अर्थात् पाँच भाव समझना चाहे तो अवश्य समझ में आ सकता है। समझने के लिए तो यह कहा जाता है। अपने में ही जो बात हो रही है, वह अपने को कैसे समझ में नहीं आयेगी? अन्तर शोध में वर्ते तो अवश्य समझ में आयेगी। संसार से थककर भगवान आत्मा की रुचि करके अन्तर शोधे कि अरे ! मैं कौन हूँ? यह सब क्या है? मेरा सच्चा स्वरूप क्या है ? मेरे आत्मा को शान्ति कैसे हो? ऐसे गहरे विचार करके, अन्तर में शोधने से शुद्ध -स्वभावसन्मुख-परिणाम हुए बिना नहीं रहते। बापू! बाहर के