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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 137 शुद्धात्मा से विमुख परिणाम है और परसन्मुख परिणाम है। उस शुभ में एकाग्रता को धर्मध्यान, व्यवहार से ही कहा है; वह निश्चय से धर्मध्यान नहीं है; निश्चयधर्मध्यान का विषय अपना शुद्ध आत्मा ही है। स्वसन्मुख होकर निजस्वभाव में परिणाम की एकाग्रता, वह निश्चयध्यान है। * हिंसादि भाव तो अशुभ हैं, पाप हैं, अशुद्ध हैं; __ * दयादि भाव शुभ हैं, पुण्य हैं, अशुद्ध हैं; इस प्रकार यह शुभ या अशुभ दोनों परिणाम, आत्मा के स्वभाव से विरुद्ध हैं; दोनों में से कोई मोक्षमार्ग नहीं है। अरे भाई! बाहर के परिणाम को तू अपने निजघर में डाले, वह नहीं चलता। बाह्यभाव को अन्तर के स्वभाव में मिला देगा तो तेरा सत्यस्वरूप तेरे. अनुभव में नहीं आयेगा। शुभाशुभभावोंरूपी अग्नि तेरे निजघर में से प्रगट नहीं हुई है। तेरा निजघर तो चैतन्यमय है। अपने ऐसे निजघर का निर्णय करने की भी जिसकी सामर्थ्य नहीं है, वह स्वरूप का अनुभव कब करेगा और उसमें कब स्थिर होगा? अहो! ऐसी वस्तुस्थिति.... अपने को अपने निजघर में ही प्रवेश करना है। उसमें किसी वाद-विवाद का कहाँ अवकाश! सद्गुरु कहे सहज का धन्धा.... वस्तु के सहज स्वरूप में वाद-विवाद का विकल्प कैसा? सहज आनन्द की मूर्ति भगवान आत्मा.... उसके सन्मुख होने पर सब समाधान हो जाता है। देखो, यह संक्षिप्त में जैन सिद्धान्त का सार! शुद्धात्मद्रव्य त्रिकाल पारिणामिकभाव; उसके सन्मुख परिणाम, वह मोक्षमार्ग; उससे विमुख परिणति, वह संसार। सन्मुख परिणाम में संवर, : निर्जरा, मोक्ष आये; विमुख परिणति में आस्रव, बन्ध आये। जीव
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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