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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
मोक्षमार्ग का भाव नहीं है; मोक्षमार्ग तो निज परमात्मद्रव्य के आश्रय से होनेवाले वीतरागभावरूप है। देखो तो सही, बन्ध और मोक्ष के भावों का कितना स्पष्ट पृथक्करण किया है !
सहज निरावरण निज परमात्मद्रव्य की सन्मुखता से मोक्षमार्ग खुलता है । परसन्मुखता में शुभराग है, वह मोक्ष का कारण नहीं है; मोक्षमार्ग तो निराकुल सुखरूप है । अतीन्द्रिय सुख के वेदनसहित मोक्षमार्ग शुरु होता है। पुण्यभाव, मोक्षमार्ग में जरा भी नहीं है, वह बन्धमार्ग में ही है; मोक्षमार्ग तो रागरहित परिणाम है। आत्मा की ओर झुका हुआ जो शुद्धभाव - वीतरागभाव, वह जरा भी बन्ध का कारण नहीं है । राग तो आकुलता है, बन्धन है । आचार्यदेव ने इस गाथा में कहा है कि विशुद्धज्ञान, कर्म के बन्ध-मोक्षादि को अथवा रागादिक को कर्ता नहीं है; 'जानता ही है' यह जाननेरूप क्रिया, मोक्षमार्ग है । जाननेवाले ज्ञायकस्वभाव को देखते ही मोक्षमार्ग द्वार खुल जाता है ।.
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निजाधीन चैतन्यनिधान में अन्तर्दृष्टि करने से आत्मा, राग से भिन्न पड़ता है और वीतरागी श्रद्धा - ज्ञान शान्तिरूप मोक्षमार्ग प्रगट होता है, वही धर्म है; इससे विरुद्ध दूसरा कोई भी मार्ग कहे तो वह तत्त्व से विरुद्ध है, अर्थात् अधर्म है। राग का प्रेम छोड़कर चैतन्य के प्रेम में जो एकाग्र हुआ, वह अपने ध्रुवस्वभाव में अभिमुख हुआ, स्वभावसन्मुख हुआ, उपशमादिभावरूप हुआ, शुद्ध उपादानरूप परिणमित हुआ - ऐसे तेरह जितने अलग-अलग नामों से इस टीका में उसकी पहचान करायी है परन्तु उसमें कहीं शुभराग नहीं है ।
जो शुभराग हैं, वह शुद्धात्माभिमुख परिणाम नहीं है, वह तो