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________________ 134 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा अरहन्त के आत्मा में आत्माश्रित गुणों को और शरीराश्रित गुणों को जो भिन्न-भिन्न पहचानता है, वह अपने आत्मा को भी पर से और राग से भिन्न क्यों नहीं पहचानेगा? – अवश्य पहचानेगा। इसलिए जिसे आत्माश्रित भावों से अरहन्तादिक का सच्चा श्रद्धान होता है, उसे तत्त्वश्रद्धानरूप सम्यक्त्व अवश्य होता ही है। प्रवचनसार में अलिंगग्रहण के बीस अर्थों में भी कहा है कि ज्ञानी के आत्मा की पहचान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञानपूर्वक ही होती है। अपने में अतीन्द्रिय स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होवे, उस प्रत्यक्षपूर्वक अनुमान हो, वह सच्चा होता है परन्तु प्रत्यक्ष के बिना अकेले अनुमान से अतीन्द्रिय आत्मा की वास्तविक पहचान नहीं होती है। यहाँ जीव के भावों का वर्णन चल रहा है। उसे यथार्थ पहचानने से भेदज्ञान होता है। आत्मा को जब सम्यग्दर्शन नहीं था, तब उसकी भव्यत्वशक्ति आवरणरूप थी और अब स्वसन्मुखभाव द्वारा सम्यग्दर्शनादि होने पर वह भव्यत्वशक्ति व्यक्त हुई, उस समय पाँचों लब्धियाँ एक साथ वर्तती हैं। स्वभाव के लक्ष्य से पुरुषार्थ हुआ, वहाँ भव्यत्व भी पक गया। वही सम्यक्त्वादि लब्धि का काल है। पहले पर्याय में अशुद्धता की योग्यता थी, तब आवरण था; अब शुद्धता प्रगट हुई, वहाँ आवरण मिटा। आवरण होना और मिटना – वह पर्याय में है। द्रव्यस्वभाव में तो घात होने का या प्रगट होने का नहीं है। एकरूप द्रव्यस्वभाव को देखनेवाली दृष्टि, अपने आत्मा को मुक्त ही देखती है; इसलिए उस दृष्टि की अपेक्षा स हि मुक्त एव - अर्थात्, वह मुक्त ही है - ऐसा कहा है। मोक्षमार्गी जीव, अर्थात् धर्मीजीव, अपने परमात्मद्रव्य के
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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