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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 133 अर्थ समझकर, एक भाव को दूसरे भाव में मिला दे तो सच्ची श्रद्धा नहीं होती है। यह बात पण्डित टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक में बहुत सरस समझायी है। वे कहते हैं - अरहन्तदेवरूप सच्चे देव की भक्ति करते हुए भी उनके जीवाश्रित सच्चे गुणों को अज्ञानी नहीं पहचानता; इसलिए वह मिथ्यादृष्टि ही रहता है। यदि अरहन्त के आत्मा के यथार्थ विशेषणों को पहचाने तो वह मिथ्यादृष्टि रहे ही नहीं। अरहन्तदेव में सर्वज्ञता आदि विशेषण तो आत्माश्रित हैं और दिव्यध्वनि, परमौदारिकशरीरपना इत्यादि विशेषण, शरीराश्रित हैं। इन दोनों का भेद नहीं जानता और शरीर के धर्मों को जीव में मिलाकर एक-दूसरेरूप श्रद्धा करता है; इसलिए उसे अरहन्तदेव का सच्चा श्रद्धान नहीं है और इस कारण उसका मिथ्यात्व नहीं • मिटता है। जिसे सच्चे अरहन्तादि देव के स्वरूप का श्रद्धान होता है, उसे तत्त्वार्थश्रद्धान अवश्य होता ही है क्योंकि अरहन्त आदि के स्वरूप को पहचानने से जीव-अजीव की भिन्नता की पहचान होती है। प्रवचनसार गाथा 80 में श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने यह बात अलौकिक पद्धति से समझायी है - जो जानता अरहन्त को, द्रव्य-गुण-पर्याय से; वह जीव जाने आत्म को, तसु मोहक्षय पावे अरे॥ आत्मा के विशेषणों सहित देव-गुरु का यथार्थ स्वरूप जानने पर, अपने शुद्ध आत्मा का स्वरूप भी जीव को लक्ष्य में आता है, और मिथ्यात्व का नाश होकर सम्यक्त्व होता है । वरना देव-गुरु की ओर का अकेला शुभभाव कहीं सम्यक्त्व नहीं है।
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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