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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 131 एक बात श्रीमद् राजचन्द्र लिखते हैं कि हमने बहुत विचार करके यह मूल तत्त्व ढूँढा है कि चैतन्य का गुप्त चमत्कार, सृष्टि के लक्ष्य में नहीं है। देखो, यह मूलतत्त्व! तेरे तत्त्व की महिमा का गहरा विचार तो कर! गहरे उतरे बिना यूँ ही ऊपर से उसका पता नहीं लगता। प्रत्येक आत्मा आनन्दमय अमृतरस से परिपूर्ण है। अन्दर के स्वभाव की शक्ति, जगत को ख्याल में नहीं है। रागादि परभावों को ही जीव ने भाया है परन्तु अन्तर्मुख होकर अपने स्वभाव को कभी उसने भाया नहीं है। अब यहाँ तो उस स्वभाव की भावना करके मोक्षमार्ग प्रगट होता है, उसकी बात है। निज परमात्मतत्त्व के आश्रय से भव्यजीव को शुद्धात्म के श्रद्धा-ज्ञान -चारित्र प्रगट होते हैं, उन्हें भावत्रय कहा जाता है और वह मोक्ष का कारण है। उदयभाव तो बन्धमार्ग में गया और पारिणामिक, निष्क्रिय रहा। मोक्षमार्ग की क्रियारूप शेष तीन भाव रहे, उनकी यह बात है। इन पाँच भावों में तो द्रव्य-गुण-पर्याय, बन्ध-मोक्ष, मोक्षमार्ग सब आ जाता है। आत्मा के परमस्वभाव के सन्मुख होने पर जो शुद्धता प्रगट हुई, उसे शास्त्रभाषा से या आत्मभाषा से अनेक नाम कहे जाते हैं। उनमें से बहुत नाम, पूर्व में कहे जा चुके हैं। शुद्धद्रव्यार्थिकनय से तो आत्मा सदा निरावरण पारिणामिक -भावरूप है; आवरण और उघाड़ तो पर्यायदृष्टि से है और उसमें कर्म के उदयादि निमित्त हैं। पर्याय स्वयं शुद्ध परिणमित नहीं हुई, तब कर्मों ने आच्छादित किया - ऐसा व्यवहार है। ज्ञानपर्याय स्वयं हीन होकर परिणमित हुई, तब उसमें ज्ञानावरण का उदय
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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