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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 125 अनन्त चैतन्यशक्ति से भरपूर आत्मा, चमत्कारिक वस्तु है। अलौकिक धर्मों का भण्डार आत्मा है परन्तु जीवों को उसका पता नहीं है। श्रीमद् राजचन्द्रजी कहते हैं कि चैतन्य का गुप्त चमत्कार सृष्टि के लक्ष्य में नहीं है। __ भाई! तुझमें गुप्त रही हुई तेरी परम शक्ति, सन्त तुझे बतलाते हैं। परम पारिणामिकभावरूप अपना जो परमात्मस्वभाव है, उसके सन्मुख परिणमते हुए शुद्धभावरूप मोक्षमार्ग प्रगट होता है, उसे शुद्धात्मपरिणाम कहो, रत्नत्रयधर्म कहो, शुद्ध उपादान कहो, शुद्धोपयोग कहो, परम अहिंसा कहो, उपशमादि भाव कहो, साधकभाव कहो, ज्ञायकभाव कहो, वीतरागीविज्ञान कहो, अकर्ताभाव कहो, वीतरागभाव कहो, मोहक्षोभरहित परिणाम कहो, ध्यान कहो, परमात्मतत्त्व की भावना कहो, आराधना कहो, सच्चा सुख कहो - ऐसे अनेक नाम कहे जा सकते हैं परन्तु उनमें कहीं राग नहीं आता, पराश्रय नहीं आता; स्वाधीनरूप से स्वसन्मुख होकर निजनिधान को प्रगट करे, ऐसा आत्मा है। . निजाधीन निधान से भरपूर आत्मा को दृष्टि में लेने से निधान खुलते हैं। मोक्षमार्ग के जो परिणाम हैं, वे शुद्धात्मा के सन्मुख हैं और शुभाशुभराग से विमुख हैं। अरे...! आत्मा से विमुख ऐसे राग से जो मोक्षमार्ग मानता है, वह परसन्मुखता छोड़कर स्वसन्मुख कब होगा और उसे मोक्षमार्ग कैसे प्रगट होगा? पर्याय, स्वयं ध्रुवस्वभाव में एकाग्र होकर अपने परमानन्द स्वरूप का साक्षात्कार करती है, वह मोक्षमार्ग है। उसके अनेक नाम हैं। द्रव्यसंग्रह में उसका सरस कथन किया है। वहाँ कहते हैं - सहज शुद्धज्ञान-दर्शनमय स्वभाव परमात्मतत्त्व के सम्यक्श्रद्धान
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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