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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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पाँच भावों को भलीभाँति पहचानने से नव तत्त्व इत्यादि की, भी समझ हो जाती है। यह तो आत्मा के भांव की मूलवस्तु है। अपने भाव की पहचान तो जीव को करनी चाहिए न!'धर में क्या -क्या वैभव है, उन सबका कैसा ध्यान रखता है ! कौन सी चीज कितनी मूल्यवान है, यह सब भलीभाँति लक्ष्य में रखता है परन्तु वह वैभव तो जड हैं। भाई! तेरे आत्मा के खजाने में कैसे-कैसे भाव भरे हैं, उसे तो पहचान। उसमें किस भाव की कितनी कीमत है, यह भलीभाँति लक्ष्य में ले और उसमें से ध्येयरूप परमभाव को ध्यान में ले तो तुझे मोक्षवैभव प्राप्त होगा। यही तेरा वास्तविक वैभव है, खजाना है।
आत्मा के पाँच भाव, उनमें से चार भाव तो उत्पाद-व्ययरूप हैं और पञ्चम भाव ध्रुवरूप है। आत्मा को ध्रुवभाव से देखने पर उसमें उत्पाद-व्यय दिखायी नहीं देते; इसलिए यह कहाँ है कि क्षायिकभाव के स्थान भी आत्मा में नहीं है। द्रव्यदृष्टि की अपेक्षा से ऐसा कहा है कि द्रव्य को देखनेवाली दृष्टि में पर्याय के भेद दिखायी नहीं देते हैं परन्तु पर्याय अपेक्षा से तो वे क्षायिकादि भाव,
आत्मा की पर्याय हैं; वे कहीं आत्मवस्तु से भिन्न अन्यत्र नहीं रहते। द्रव्य-पर्याय, दोनों की सापेक्षतारूप वस्तु है, उसमें चौदह गुणस्थान, चौदह मार्गणास्थान – ये सब प्रकार जीव की पर्यायरूप हैं। जीव का शुद्ध जीवत्वरूप पारिणामिकपना, वह द्रव्यार्थिकनय का विषय है - ऐसा शुद्धपरमभाव समस्त जीवों में शक्तिरूप त्रिकाल है। ऐसा शुद्धस्वभाव जहाँ दृष्टि में आया, वहाँ सम्यक्त्वादि प्रगट होते हैं और तब भव्यत्वशक्ति व्यक्त हुई - ऐसा कहा जाता है। भव्यत्व तो उस जीव में पहले से था परन्तु निज स्वभाव का