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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
आच्छादित करती है परन्तु ज्ञानादि अनुजीवीगुणों को वे घातती नहीं हैं; इसलिए वे अघाति हैं । इस प्रकार समुच्चयरूप से इन मोहादिक में यथासम्भव, अर्थात् भूमिकानुसार जीव- गुणों को, अर्थात् सम्यक्त्वादि को आच्छादित करती है । यह औदायिकभाव है ।
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' अब, वह आवरण दूर कैसे होता है ? पारिणामिकरूप निज परमस्वभाव के सन्मुख होकर उसकी भावना करने से मोक्ष -कारणरूप ऐसे औपशमिकादि भाव प्रगट होते हैं और मिथ्यात्वादि औदयिकभाव मिट जाते हैं, तब भव्यत्वभाव व्यक्त हुआ ऐसा कहा जाता है। शुद्धजीवत्व पारिणामिक तो सदा निरावरण है, बन्ध - मुक्ति से निरपेक्ष है परन्तु इस भव्यत्व लक्षणरूप पारिणामिकभाव में ढँकना और प्रगट होना, ऐसे दो प्रकार कहे, वह पर्यायार्थिकनय का विषय है ।
देखो, इन पाँच भावों के वर्णन में तो बहुत बात आ जाती है। 'त्रिकाली आत्मद्रव्य कैसा है ? उसकी भूलदशा कैसी है और भूल मिटने पर आनन्ददशा होती है, वह कैसी है ? – ये सब पाँच भावों में आ जाता है। आत्मद्रव्य, वह पारिणामिकभाव; भूलदशा, वह औदयिकभाव; भूल मिटकर आनन्ददशा प्रगट हुई, वह उपशम - क्षयोपशम- क्षायिकभाव है ।
* मोक्ष के पन्थ में गमनशील जीव, सबसे पहले उपशम - सम्यक्त्व प्रगट करता हैं, उसके साथ सम्यग्ज्ञान क्षायोपशमभावपने होता है । उपशमभाव में उदय का अभाव है और चैतन्य की शान्ति है । अनादि का मिथ्यादृष्टि जीव, सर्व प्रथम जब चैतन्यस्वभाव का अनुभव करता है, तब मिथ्यात्व का उपशम होता है । उपशमभावरूपी अमृत द्वारा मिथ्यात्व का जहर दूर हो जाता है
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