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________________ 120 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा - .. . गुणों का घातक-घाति और सर्वघाति, ऐसा नामवाला मोहादिकर्म सामान्य पर्यायार्थिकनय से ढंकता है - ऐसा जानना। वहाँ जब कालादि लब्धि के वश से भव्यत्वशक्ति की व्यक्ति होती है, तब यह जीव, सहज शुद्धपारिणामिक -भाव लक्षण निज कारणपरमात्मा के सम्यग्श्रद्धानज्ञान-अनुचरणरूप पर्याय से परिणमता है; वह परिणमन, आगम-भाषा से औपशमिक, क्षायोपशमिक तथा क्षायिक, ऐसे भावत्रय कहलाता है और आध्यात्मभाषा से शुद्धात्माभिमुख परिणाम, शुद्धोपयोग इत्यादि पर्याय संज्ञा प्राप्त करता है। - देखो, पहले पारिणामिकभाव कहा और अब इसमें मोक्षमार्ग के तीन भावों की बात करते हैं। धर्मी होने से पहले अनादि से मोहकर्म के निमित्त से जीव ने अपने सम्यक्त्वादि गुणों का घात किया था, इसलिए मोक्ष के कारणरूप तीन भाव उसे नहीं थे परन्तु ... अब ज्ञानी के निमित्त से स्वसन्मुख होकर आत्मलब्धि की, वहाँ पुरुषार्थ-स्वकाल इत्यादि लब्धियाँ भी हो गयीं, अर्थात् मोक्षमार्गरूप औपशमिक आदि भाव प्रगट हुए। इस प्रकार सम्यक्त्वादि प्राप्त होने पर, भव्यत्व का परिपाक हुआ कहा जाता है। - अज्ञानदशा में जीव स्वयं शुद्धनय अनुसार स्वसन्मुख होकर सम्यक्त्वादि भावोंरूप परिणमित नहीं हुआ, तब मिथ्यात्वादि कर्म उसे सम्यक्त्वादि गुणों के घात में निमित्त हुए। मिथ्यात्व, केवलज्ञानावरण आदि कितनी ही प्रकृतियाँ सर्वघाति हैं; सम्यक्त्व -मोहनीय तथा चार ज्ञानावरणादि कितनी ही प्रकृतियाँ देशघाति हैं। जो चार अघाति प्रकृतियाँ हैं, वे यद्यपि प्रतिजीवीगुणों को .. : ..:. : ७ . .. .
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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