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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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के सूत्र हैं। इनमें गम्भीर भाव भरे हुए हैं। वाह! दिगम्बर सन्तों की कथनी ही कोई अलौकिक है। सर्वज्ञ के उपदेश के रहस्य सन्तों ने खोले हैं। आहा...हा...! यह वीतरागी सन्तों का महा उपकार है।
आत्मा का सच्चा काम और सच्चा जीवन तो चेतना है और दश प्राण तो व्यवहार से हैं। वह आत्मा का परमार्थस्वरूप नहीं है, उसके बिना भी आत्मा जी सकता है। सिद्ध को पूर्व में, अर्थात् संसार अवस्था के समय दश प्राण थे परन्तु अभी तो वे सर्वथा नहीं हैं; द्रव्य-गुण में तो पहले से ही नहीं थे और अब पर्याय में भी उनका अभाव हुआ। जैसे, सिद्ध भगवन्तों को सुख सर्वथा है, अर्थात् एकान्तिक सुख है और दु:ख सर्वथा नहीं है - ऐसा अनेकान्त कहा जा सकता है परन्तु सिद्ध भगवान को कथञ्चित् सुख है और कथञ्चित दु:ख है' ऐसा अनेकान्त तो सिद्ध को लागू नहीं होता।
जैनदर्शन में 'सर्वथा' शब्द हो ही नहीं - ऐसा तो नहीं है। वस्तुस्थिति का नियम बतलाने को 'सर्वथा' शब्द भी प्रयुक्त होता है। जैसे कि 'सिद्ध भगवन्त सर्वथा, अर्थात् एकान्ततः सुखी हैं' इसमें 'सर्वथा' शब्द होने पर भी कोई दोष नहीं है, अपितु वह तो वस्तुस्वरूप बतलाता है। लोग तो वस्तुस्वरूप समझे बिना, अनेकान्त के नाम से गड़बड़ करते हैं। यहाँ तो अनेकान्त के अनुसार जीव के द्रव्य-पर्याय का और पाँच भावों का स्वरूप समझाकर, मोक्षमार्ग कैसे सधता है ? -- यह बतलाना है। .
पारिणामिकभाव के जो तीन प्रकार कहे, उनमें भव्यत्व लक्षण पारिणामिक का तो यथासम्भव सम्यक्त्वादि जीव