________________
118
ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
है, उसका अनुभव करने की बात है। उसमें विभाव से शून्यता है परन्तु कहीं आत्मा, सर्वथा शून्य नहीं हो जाता है ।
अरे ! जीवों को अपना सूक्ष्म स्वरूप समझ में न आवे तो स्थूल बातों में धर्म मना देता हो तो वह बात अच्छी लगती है परन्तु समन्तभद्रस्वामी कहते हैं कि
परमत मृदुवचन रचित भी है, निजगुण-संप्राप्ति रहित वह है;
अरे ! परमत, अर्थात् राग से धर्म मनानेवाला अन्यमत । वह भले ही कोमल वचनवाला हो, परन्तु सम्यक्त्व आदि निजगुण की प्राप्ति तो उसमें नहीं है। हे जिनेन्द्रदेव ! अनेक सम्यक्नयों के भंग से विभूषित ऐसा आपका स्याद्वादमार्ग है, वह समन्तभद्ररूप है, अर्थात् समस्त प्रकार से जीवों का कल्याण करनेवाला है और निर्दोष है। प्रभो ! वस्तु का अनेकान्तस्वरूप बतलानेवाली आपकी वीतरागी वाणी हमें मोक्ष की दाता है ।
प्रभो! आपके द्वारा कथित शुद्धात्मद्रव्य जिसकी प्रतीति में आया, उसकी प्रतीति में सिद्ध को आना ही पड़ेगा। शुद्धद्रव्य की प्रतीति करनेवाले को पर्याय में सिद्धपद प्रगट होता ही है।
आहा...हा... ! जगत के तत्त्व और उनमें सर्वोत्कृष्ट भगवान आत्मा का स्वभाव जैसा है, वैसा जिनेन्द्र भगवान ने प्रसिद्ध किया है। उसे पहचान कर, हे जीव ! तेरी पर्याय में तं सिद्ध को प्रसिद्ध कर ।
तेरे तत्त्व में जो भाव हैं, उनका यह वर्णन है। द्रव्य-पर्यायरूप वस्तु कैसी है और साधक की दशा में कैसे भाव होते हैं ? - यह सब बात एक गाथा में आचार्यदेव ने समझा दी है । यह तो सिद्धान्त