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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
नहीं होता है । साक्षात् मोक्षदशा हो गयी, फिर 'मोक्ष होने की योग्यता' कहने का कहाँ रहा ? इसलिए उन्हें भव्यत्व का अभाव कहा है। शास्त्रों में तो अनेक विवक्षा से कथन आता है; जहाँ जो विवक्षा है, वह समझना और उसमें से अपना हित हो - ऐसा तात्पर्य निकालना चाहिए ।
शुरुआत में कहा था कि देखो भाई! आत्मा के स्वभाव की यह बात सूक्ष्म है; सूक्ष्म है परन्तु महा- कल्याणकारी है; इसलिए समझने में विशेष ध्यान रखना.... परन्तु सूक्ष्म है, इसलिए समझ में नहीं आयेगी - ऐसा नहीं मान लेना । यह बात मेरे स्वभाव की है. और मुझे समझने योग्य ही है। इस प्रकार इसकी महिमा लाकर अन्तर के प्रयत्न से समझना । जीवों को समझाने के लिए ही तो आचार्यदेव ने यह बात की है; इसलिए यह समझ में आ सकती है और अनुभव में ली जा सकती है।
वाह! यह तो आत्मा का अनुभव करानेवाली वीतराग की वाणी है। मीठी-मधुर यह वीतरागी वाणी, आत्मा का सतस्वरूप दिखलाती है। ऐसा वस्तुस्वरूप जाने बिना, सच्ची दृष्टि नहीं होती; सच्ची दृष्टि हुए बिना उद्धार नहीं होता और भगवान का भक्त नहीं कहलाता। दूसरे मिथ्यादृष्टि जीव, अद्धर से कल्पना करके अलंकारिक बातें करें, वहाँ तत्त्वबुद्धिरहित अज्ञानियों को वह वाणी मीठी लग जाती है परन्तु वह कोई सत्य नहीं है, उसमें आत्मा का हित नहीं है; अपितु अहित है । आत्मा को भी भूलकर शून्य हो जाना - ऐसा शून्य हो जाने की बात करते हैं, उसमें तो जड़ हो जाने जैसा आया है। बापू ! भगवान का मार्ग ऐसा अन्धा नहीं है, यह तो अन्दर जागती ज्योत जगमगाहट करता चैतन्यसूर्य स्वयं