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________________ 116 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा पता न पड़े - यह कैसे हो सकता है? वहाँ सन्देह को अवकाश ही नहीं है। अहो! सम्यग्दृष्टि की दृष्टि, ध्रुव पर है; इसलिए मैं त्रिकाल शुद्ध ही हूँ - ऐसा वह अनुभव करता है, वहाँ विकार कैसा और भव कैसा? उसे तो भव्यता पक गयी.... मोक्ष लेने की तैयारी हो गयी.... आत्मा की जीत के नगाड़े बजे.... अन्तरस्वभाव की तरफ जो पर्याय झुकी, वह पर्याय, मुक्ति लेनेवाली ही है। सदा ही मुक्त ऐसे शुद्धद्रव्य की जहाँ खबर पड़ी, वहाँ पर्याय की मुक्ति का सन्देश भी आ ही गया। अन्तर में स्वयं की ऐसी दशा, स्वयं को दिखायी दे, तब जीव को धर्म हुआ कहलाता है। परमपारिणामिकभाव से परिपूर्ण भगवान आत्मा जहाँ प्रतीति में आया, वहाँ सम्यग्दर्शन हुआ; उस जीव ने शुद्धनय अनुसार भूतार्थ आत्मा का बोध किया, वहाँ जड़इन्द्रियों से तो पृथक् जाना, और भावेन्द्रिय जितना ही मैं - ऐसी बुद्धि भी नहीं रही; इसलिए वह जितेन्द्रिय हुआ। उसके अतीन्द्रिय ज्ञानचक्षु खुल गये... भव्यत्व का परिपाक हुआ। भव्यत्व-अभव्यत्व में कर्म के उदयादि निमित्त नहीं हैं; इसलिए उसे पारिणामिकभाव कहा है और सिद्ध में उसका (भव्यत्व का) अभाव हो जाता है; इसलिए उसे अशुद्ध कहा है। सभी जीवों को जो एकरूप परमस्वभाव है, उसे शुद्धपारिणामिकभाव कहा है और वह इत्यदृष्टि का विषय है। यद्यपि कहीं भव्यत्व और अभव्यत्व को त्रिकाली गुणरूप भी वर्णन किया है। यहाँ पर्याय की अपेक्षा से कहा है कि सिद्ध को अब भव्यत्व का व्यवहार
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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