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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 115 - इन नयों की अपेक्षा से कषाय को पारिणामिकभावरूप होना कहा है। वैसे तो कर्मोदय के निमित्त से हुआ होने से वह औदयिकभाव है परन्तु ऐसे निमित्त-नैमित्तिकभाव को ये नय ग्रहण नहीं करते। इन नयों की दृष्टि में तो कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है। यहाँ तो पर्याय को गौण करके जो त्रिकाल एकरूप परम -स्वभाव है, उसे पारिणामिकभावरूप वर्णन करके ध्यान के ध्येयरूप बतलाना है। कषायादि समस्त विकारीभाव औदयिक हैं। अभी मोक्ष नहीं है और अल्प काल में मोक्ष होगा - ऐसे दो भेद भी जिसमें नहीं दिखते – ऐसे एकरूप अन्तरस्वभाव की दृष्टि यहाँ कराते हैं। धर्मी को कहीं अपनी भव्यता में सन्देह नहीं रहता। मैं भव्य तो हूँ और आसन्न भव्य हूँ - ऐसा उसे आत्मा में से विश्वास हो गया है क्योंकि जहाँ शुद्धवस्तु दृष्टि में आ गयी... आत्मा परभावों से पृथक् परिणमन करने लगा, वहाँ अब मोक्ष में क्या विलम्ब! अथवा दृष्टि अपेक्षा से उसे मुक्त ही कहा है - स हि मुक्त एव। अब मुझे अनन्त भव बाकी होंगे! - ऐसा सन्देहभाव मिथ्यादृष्टि को ही होता है, धर्मी को ऐसा सन्देह नहीं होता; वह तो नि:शंक है कि अब मुझे अनन्त भव तो नहीं, परन्तु अत्यन्त अल्प काल में ही भव का अभाव करके मैं मोक्षदशा प्रगट करनेवाला हूँ और सर्वज्ञ भगवान भी ऐसा ही जान रहे हैं। देखो, यह मोक्ष के साधक धर्मी की दशा! धर्मी को स्वयं को स्वयं का पता पड़ता है। आहा...हा...! जो आत्मा में उतरकर अपूर्व आनन्द का अनुभव करते-करते मोक्ष का साधक हुआ, उसे स्वयं को अपना
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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