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________________ 114 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा - समझनेवाला जीव, भव्य ही होता है परन्तु 'मैं भव्य हूँ, अभव्य नहीं' – ऐसे विकल्प द्वारा शुद्धद्रव्य अनुभव में नहीं आता। मैं निकट भव्य हूँ और अल्प काल में मेरी मोक्ष पर्याय खिल जाएगी - ऐसा सम्यक्त्वी को अपनी पर्याय में निःशंक निर्णय हो गया है परन्तु एकरूप स्वभाव को देखनेवाली दृष्टि में पर्याय के वे कोई भेद दिखायी नहीं देते, एक सर्वोपरि परमभाव ही दिखायी देता है। 1 द्रव्य-अपेक्षा से देखने पर एकरूप वस्तु है, उसमें परिणमन नहीं; परिणमन, पर्याय अपेक्षा से है । अनादि - अनन्त एकरूप ध्रुवभाव, वह निश्चय और मोक्षमार्ग आदि पर्यायभेद, वह व्यवहार । बन्ध का अभाव करूँ और मोक्ष प्रगट करूँ ऐसे विकल्पों में आकुलता है । सहज एक ज्ञायकभाव परमस्वभाव जो कि बन्ध -मोक्षरहित है, उसमें उपयोग को जोड़ने से बन्ध-मोक्ष का कोई विकल्प नहीं रहता और निर्विकल्प अनुभव का परम आनन्द अनुभव में आता है। ऐसी एकत्व की अनुभूति में अनेक भेद नहीं दिखते । अवस्था, अवस्थारूप है परन्तु अवस्था, स्वयं ध्रुव नहीं है । यदि ऐसा नहीं होता तो वस्तु के दो अंश (दो धर्म) सिद्ध नहीं होते । वस्तु में अवस्था है ही नहीं - ऐसा नहीं है । द्रव्य और पर्याय ऐसे दो अंशरूप वस्तु है, उसमें द्रव्य अंश, अक्रिय है, पर्याय अंश, सक्रिय है । अक्रिय, ऐसा द्रव्य अंश, पारिणामिकभावरूप है और सक्रिय, ऐसा पर्याय अंश, चार भावोंरूप है । I - - कषायपाहुड-जयधवला टीका में कषाय को पारिणामिकभाव कहा है, वहाँ अलग अपेक्षा है । नैगम, संग्रह और व्यवहार – ये तीन नय, कारण- कार्यभाव को ग्रहण नहीं करते हैं परन्तु कारण - कार्यभावरहित सीधी वर्तमान पर्याय को ग्रहण करते हैं; इसलिए
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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