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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
ये तीन प्रकार हैं। वे विनाशशील होने से पर्यायाश्रित हैं; इसलिए वे पर्यायार्थिकरूप अशुद्धपारिणामिकभाव कहे जाते हैं ।
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उन्हें अशुद्धता क्यों है ? ऐसा कोई पूछे तो उसका उत्तर यह है कि व्यवहारनय से संसारी जीवों को यद्यपि अशुद्धपारिणामिकभाव है, तथापि सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया - इस वचन से शुद्धनिश्चय की अपेक्षा से जीव को वे तीन भाव नहीं हैं और मुक्त जीवों को तो सर्वथा ही नहीं हैं। इस कारण उन तीन भावों को अशुद्धद्रव्य कहा है। उन शुद्ध और अशुद्धपारिणामिकभावों में से जो शुद्ध - पारिणामिकभाव है, वह ध्यान के समय ध्येयरूप है परन्तु ध्यानरूप नहीं, क्योंकि ध्यान-पर्याय तो विनश्वर है और शुद्धपारिणामिकभाव तो द्रव्यरूप होने से अविनश्वर है (देखो, द्रव्यसंग्रह गाथा 13 की टीका ) । यहाँ श्री समयसार की 320 वीं गाथा की टीका में भी अक्षरश: यही बात की है ।
शुद्धपारिणामिकभाव में तीन भेद नहीं पड़ते, क्योंकि एकरूप जीवस्वभाव बतलाना है । भव्यत्व का सिद्धदशा में अभाव हो जाता है क्योंकि वहाँ साक्षात् मोक्षदशा हो ही गयी, वहाँ ' अब मोक्ष होने की योग्यतारूप' नहीं रहता । इस अपेक्षा से भव्यत्व को भी व्यवहारनय के भेद में लेकर अशुद्धपारिणामिकरूप कहा है। शुद्ध - दृष्टि में चौदह मार्गणा के भेद का निषेध करने में उसका भी निषेध आ ही गया है । व्यवहार से पारिणामिकभाव के तीन भेद होते हैं, उनका ज्ञान कराया है । पञ्चेन्द्रिय आदि जीव, जीव की सौ वर्ष इत्यादि आयु - ऐसा इन्द्रिय आदि दश प्राण द्वारा जीव को पहचानना, वह अशुद्धनय का विषय है ।
द्रव्यदृष्टि से सभी जीव, शुद्ध एकरूप हैं। उनका स्वरूप