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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
नहीं है; इसलिए उस पर्याय का भेद डालकर देखने से, अखण्ड आत्मस्वरूप नहीं दिखता । अन्तर्दृष्टि से त्रिकालीद्रव्य को देखने से, आत्मा का सच्चा स्वरूप दिखता है ।
अहो! आत्मा का स्वरूप ही ऐसा है । वह चाहे जितना स्थूल/ विस्तृत या सरल करके समझाओ, परन्तु मूलस्वरूप ही सूक्ष्म अतीन्द्रिय है । वह सूक्ष्मस्वरूप, ऐसा स्थूल तो कभी हो ही नहीं सकता कि इन्द्रियज्ञान से पकड़ में आ जाए। सूक्ष्म वस्तु को पकड़कर, उसका अनुभव करने के लिए तो अपने ज्ञान को अतीन्द्रिय बनाना पड़ेगा । ज्ञान, अतीन्द्रिय कब होता है ? अन्तर्मुख होवे तब। इसलिए अन्तर्मुख होने का अभ्यास करना ही आत्मा को समझने का उपाय है; बाकी आत्मा विकल्पगम्य या वाणीगम्य हो जाए - ऐसा स्थूल नहीं है । वह तो कोई अचिन्त्य महिमावन्त अतीन्द्रिय महापदार्थ है, महान है परन्तु स्थूल नहीं; सूक्ष्म है, अतीन्द्रिय है, स्वानुभवगम्य है ।
देखो, यह आत्मा का जीवन । अरे जीव ! तुझे तेरे स्थायी जीवन का भी पता नहीं पड़ता तो तू किस प्रकार सच्चा जीवन जियेगा ? अन्न, पानी या शरीर से तू जीवित रहना मानता है, वह कोई सच्चा जीवन नहीं है।
भगवान कैसा जीवन जीते हैं ? क्या रागवाला जीवन ? क्या वह भगवान का वास्तविक जीवन था ? नहीं! भगवान ने अपने त्रिकाली चैतन्यप्राणरूप परमस्वभाव को राग से पृथक् जानकर, उस स्वभाव के आश्रय से वीतरागी जीवन प्रगट किया। भगवान ऐसा वीतरागी जीवन जीये... और अभी भी ऐसा ही जीवन भगवान जी रहे हैं। ऐसा जीवन, वह वास्तविक जीवन है, वह सच्चा जीवन