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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 107 आत्मा के त्रिकाली जीवन में रागादिक नहीं हैं और इन्द्रियाँ इत्यादि द्रव्यप्राण, जो कि अचेतन हैं, वे तो आत्मा की अवस्था में भी नहीं हैं। शरीर स्वयं ही मृतक कलेवर है; अत: उसके द्वारा जीव कैसे जियेगा? अपने चैतन्यजीवन से त्रिकाल जीवे और चैतन्यस्वभाव में स्वसन्मुख होकर मोक्ष को साधकर सादि-अनन्त काल सिद्धदशा का आनन्दमय जीवन जीवे, यही आत्मा का सच्चा जीवनचरित्र है; बाकी अज्ञान में और रागादिक में जीवे, वह तो अशुद्धजीवन है - उसे उस जीव का जीवन कौन कहे? वह तो भयङ्कर भावमरण है। तू क्यों भयङ्कर भावमरण प्रवाह में चकचूर है! वास्तविक आत्मजीवन तो अरहन्त जीते हैं – 'तेरा जीवन, वास्तविक तेरा जीवन... जीना जाना नेमिनाथ ने जीवन...।' खण्ड-खण्ड ज्ञानरूप जो भावेन्द्रियाँ हैं, वे तो जीव की अशुद्ध अवस्था हैं परन्तु यह बाहर दिखनेवाली जड़इन्द्रियाँ तो आत्मा की अशुद्ध अवस्था में भी नहीं हैं; ये तो आत्मा से सर्वथा भिन्न, अचेतन वस्तु हैं। इस अचेतन के द्वारा मैं जीता हूँ अथवा इसके द्वारा मुझे ज्ञान होता है - ऐसा मानना तो जड़-चेतन की एकताबुद्धिरूप महा-अज्ञान है। यहाँ तो पर्याय में जो अशुद्धभाव है, उनसे भी पृथक् शुद्धजीवस्वभाव का अनुभव करने की बात है। यह बात बहुत ऊँची है; ऊँची है परन्तु समझने योग्य है और महान कल्याणकारी है। :: जड़, विकार, और भेद - इन तीनों से पार चेतनरूप निर्विकार एकरूप आत्मस्वभाव को ध्याने से मोक्षमार्ग प्रगट होता है। जड़ -पदार्थ तो चेतन से पृथक् ही हैं; रागादि विकारभाव भी चेतनस्वभाव की चीज नहीं हैं और एक निर्मलपर्याय जितना भी पूरा आत्मस्वभाव
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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